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भगवई
श. १५ : सू. ११३,११४
२६६ समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति समाणे आगुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' मिसिमिसेमाणे तेयासमुग्धाएणं 'मिसिमिसेमाणे' तेजःसमुद्घातेन समोहण्णइ, समोहणित्ता सत्तह पचाई समवहन्यते, समवहृत्य सप्ताष्ट पदानि पच्चोसक्कइ; पच्चोसक्कित्ता समणस्स। प्रत्यवष्वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य श्रमणस्य भगवओ महावीररस वहाए सरीरंगसि भगवतः महावीरस्य वधाय शरीरके तेयं निसिरति-से जहानामए तेजः निसृजन्ति-अथ यथानामिका वाउक्कलिया इ वा वायगंडिलिया इ वा वातोत्कलिका इति वा, वातमण्डलिका सेलसि वा कुटुंसि वा थंभंसि वा थूभंसि इति वा शैले वा कुडये वा स्तम्भे वा वा आवारिज्जमाणी वा निवारिज्जमाणी स्तूपे वा आवार्यमाणा वा निवार्यमाणा वा साणं तत्थ नो कमति नो पक्कमति। वा सा तत्र नो क्राम्यति वा नो
प्रक्राम्यति वा। एवामेव गोसालस्स वि मखलिपुत्तस्स तये एवमेव गोशालस्य अपि मंखलिपुत्रस्य तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स बहाए तपः तेजः श्रमणस्य भगवतः सरीरगंसि निसिढे समाणे से णं तत्थ नो महावीरस्य वधाय शरीरके निसृष्टं सत् कमति नो पक्कमति अंचियंचिं करेति, तत्र नो क्राम्यति नो प्रक्राम्यति करेत्ता आयाहिण-पयाहिणं करेति, अञ्चि-ताञ्चि करोति, कृत्वा करेत्ता उई वेहासं उप्पइए, से णं तओ आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा उर्ध्वं पडिहए पडिनियत्तमाणे तमेव गोसालस्स विहायसम् उत्पतितम्, तत् ततः मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे- प्रतिहतं प्रतिनिवर्तमानं तम् एव अणुडहमाणे अंतो-अंतो अणूप्पविट्टे॥ गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकम्
अनुदहन्-अनुदहन् अन्तः-अन्तः अनुप्रविष्टम्।
कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया, वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त होकर वह तैजस समुद्घात से समवहत हुआ, समवहत होकर सात-आठ पैर पीछे सरका, पीछे सरक कर श्रमण भगवान् महावीर के वध के लिए अपने शरीर से तेज का निसर्जन किया। जिस प्रकार उत्कलिका वात, मंडलिका वात, पर्वत, भित्ति, स्तम्भ अथवा स्तूप से आवारित अथवा निवारित होती हुई उनका क्रमण नहीं करती और प्रक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के वध के लिए मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर से निकला हुआ तपःतेज उनका क्रमण नहीं करता, प्रक्रमण नहीं करता, गमनागमन करता है, दायीं ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा करता है-प्रदक्षिणा कर वह शक्ति आकाश में ऊंची उछली, वहां से प्रतिहत होकर लौटती · हुई उसी मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को
जलाती हुई, जलाती हुई उसके भीतर अनुप्रविष्ट हो गई।
११३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः स्वकेन ११३. मंखलिपुत्र गोशाल ने स्वयं के तेज से तेएणं अण्णाइट्टे समाणे समणं भगवं तेजसा अन्वाविष्टः सन् श्रमणं भगवन्तं अनाविष्ट होने पर श्रमण भगवान् महावीर महावीरं एवं वयासी-तुम णं आउसो महावीरम् एवमवादीत्-त्वम् आयुष्मान् को इस प्रकार कहा-आयुष्मन् काश्यप! मेरे कासवा! मम तवेणं तेएणं अण्णाइटे काश्यप! मम तपसा तेजसा तपः-तेज से अनाविष्ट होकर तुम्हारा शरीर समाणे अंतो छहं मासाणं अन्वाविष्टः सन् अन्तं षण्णां मासानां पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए । पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः पैदा हो जाएगी, तुम छह मास के भीतर छउमत्थे चे कालं करेस्ससि॥ छद्मस्थः चैव कालं करिष्यसि।
छद्मस्थ अवस्था में मृत्यु को प्राप्त करोगे।
११४. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं ततः श्रमणः भगवान् महावीर: गोशालं ११४. श्रमण भगवान महावीर ने मंखलिपुत्र मंखलिपुत्तं एवं बयासी-नो खलु अहं मंखलिपुत्रम् एवमवादीत-नो खलु अहं गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! गोसाला! तव तवेणं तेएणं अण्णाइटे गोशाल! तव तपसा तेजसा । तुम्हारे तपः-तेज से पराभूत होकर, मेरा समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जर- अन्वाविष्टः सन अन्तं षण्णां मासानां __ शरीर पित्तज्वर से व्याप्त नहीं होगा, उसमें परिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउगत्थे चेव पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः जलन पैदा नहीं होगी, मैं छह माह के भीतर कालं करेस्सामि, अहण्णं अण्णाई सोलस छद्मस्थः चैव कालं करिष्यामि, अहम् मृत्यु को प्राप्त नहीं करूंगा। मैं अन्य सोलह वासाई जिणे गुहत्थी विहरिस्सामि। तुमं अन्यानि षोडश वषाणि जिनः सुहस्ती वर्ष तक जिन-अवस्था में गंध-हस्ती की णं गोसाला! अप्पणा चेव सएणं तेएणं विहरिष्यामि। त्वं गोशाल! आत्मना चैव भांति विहरण करूंगा। गोशाल! स्वयं अपने अण्णाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स स्वकेन तेजसा अन्वाविष्टः सन् अन्तः तपः-तेज से पराभूत होकर तुम्हारा शरीर पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए सप्तरात्रस्य पित्तज्वरपरिगतशरीरः पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि॥ दाहावक्रान्तिकः छद्मस्थः चैव कालं पैदा हो जाएगी, तुम सात दिन के भीतर करिष्यसि।
छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करोगे।
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