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________________ भगवई २६७ श. १५ : सू. ११५-११७ सावत्थीए जणपवाद-पदं श्रावस्त्या जनापवाद-पदम् श्रावस्ती में जनप्रवाद-पद ११५. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग- ततः श्रावस्त्यां नगर्यां शृंगाटक-त्रिक- ११५. श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, तिग-चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स ___ बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति यावत् राजमार्गों, मार्गों पर बहुजन परस्पर इस एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु एवं प्ररूपयति-एवं खलु देवानुप्रिय! प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैंदेवाणुप्पिया! सावत्थीए नगरीए बहिया श्रावस्त्यां नगर्यां बहिः कोष्ठके चैत्ये द्वौ । देवानुप्रियो! श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक कोट्ठए चेइए दुवे जिणा संलवंति–एगे जिनौ संलपतः-एकः वदति त्वं पूर्वं चैत्य में दो जिन संलाप करते हैं। एक कहता वदंति तुमं पुल्विं कालं करेस्ससि, एगे कालं करिष्यसि, एकः वदति त्वं पूर्व है-तुम पहले काल करोगे। एक कहता है-तुम वदंति तुम पुग्विं कालं करेस्ससि। तत्थ णं कालं करिष्यसि। तत्र कः पुनः पहले काल करोगे। उनमें कौन सम्यग्वादी के पुण सम्मावादी? के मिच्छावादी? तत्थ सम्यगवादी? कः मिथ्यावादी? तत्र यः है? कौन मिथ्यावादी है। उनमें जो णं जे से अहप्पहाणे जणे से वदति-समणे यथाप्रधानः जनः स वदति-श्रमणः यथाप्रधान जन (मुख्य व प्रतिष्ठित व्यक्ति) भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले । भगवान महावीरः सम्यग्वादी, गोशालः है, वह कहता है-श्रमण भगवान् महावीर मंखलिपुत्ते मिच्छावादी॥ मंखलिपुत्रः मिथ्यावादी। सम्यगवादी है, मंखलिपत्र गोशाल मिथ्यावादी गोसालेण समणाणं पसिणवागरण-पदं गोशालेन श्रमणानां प्रशनव्याकरण-पदम ११६. अज्जोति! समणे भगवं महावीरे । आर्य इति! श्रमणः भगवान् महावीरः समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं बयासी- श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्र्य अज्जो! से जहानामए तणरासी इ वा एवमवादीत्-आर्य! अथ यथानामक: कट्ठरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ तृणराशिः इति वा काष्ठराशिः इति वा वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा । पत्रराशिः इति वा त्वग् राशिः इति वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा तुषराशिः इति वा बुसराशिः इति वा अगणिझामिए अगणिझूसिए अगणि- गोमयराशिः इति वा अवकरराशिः इति परिणामिए हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए वा अग्निध्मातः इति वा अग्निजुष्टः लुत्ततेए विणहतेए जाए, एवामेव गोसाले । इति वा अग्निपरिणामितः इति वा मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं हततेजाः गततेजाः नष्टतेजाः निसिरित्ता हयतेए गयतेए नहतेए भट्ठतेए भ्रष्टतेजाः लुप्ततेजाः विनष्टतेजाः लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, तं छंदेणं जातः, एवमेव गोशालः मंखलिपुत्रः मम अज्जो! तुन्भे गोसालं मंखलिपुत्तं वधाय शरीरके तेजः निसृत्य हततेजाः धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, गततेजाः नष्टतेजाः भ्रष्टतेजाः धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, लुप्ततेजाः विनष्टतेजाः जातः, तत् धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, अद्वेहि य छन्देन आर्य! यूयं गोशालं मंखलिपुत्रं हेहि य पसिणेहि य वागरणेहि य धार्मिक्या प्रतिचोदनया प्रतिचोदयात, कारणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेह॥ धार्मिक्या प्रतिसारणया प्रतिसारयत, धार्मिकेन प्रत्युपचारेण प्रत्युपचारयत, अथैः च हेतुभिः च प्रश्नैः च व्याकरणैः च कारणैः च निःपृष्टप्रश्नव्याकरणं गोशाल से श्रमणों का प्रश्नव्याकरण-पद ११६. 'आर्यों-श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निग्रंथों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा-'आर्यो! जैसे तृण का ढेर, काठ का ढेर, पत्रों का ढेर, छाल का ढेर, तुष का ढेर, भूसे का ढेर, गोमय (गोबर) का ढेर, अकुरडी का ढेर, अग्नि से जल जाने पर, अग्नि से झुलस जाने पर, अग्नि से परिणमित होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज लुप्त हो जाता है, उसका तेज विनष्ट हो जाता है, इसी प्रकार मेरे वध के लिए अपने शरीर से तेज का निसर्जन कर मंखलिपुत्र गोशाल हत-तेज, गत-तेज, लुप्त-तेज और विनष्ट-तेज वाला हो गया है, इसलिए आर्यो! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित करो, धार्मिक प्रत्युपचार से प्रत्युचारित करो, अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, व्याकरणों और कारणों के द्वारा निरुत्तर-प्रश्न एवं व्याकरण-रहित करो। कुरुता ११७. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः श्रमणेन भगवता भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा महावीरेण एवम् उक्ताः सन्तः श्रमणं समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वंदित्ता, नमंसित्ता जेणेव गोसाले वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, उवाग- मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छन्ति, ११७. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर श्रमण निर्गन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर जहां मंखलिपुत्र गोशाल था वहां गए, जाकर मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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