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श. १५ : सू. १०७-१०८
एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेत्ता दोचं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धसेति, उच्चावयाहिं निन्भंछणाहिं निब्भंछेति, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, निच्छोडेत्ता एवं वयासी - नट्टेसि कदाइ, विणट्ठेसि कदाइ, भट्ठेसि कदाइ, नहविणट्ट-भट्ठेसि कदाइ, अज्ज न भविसि, नाहि ते ममाहिंतो सहमत्थि ॥
गोसालेण सुनक्खत्तस्स परितावण-पदं १०७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणी धम्मायरियाणुरागेणं एयमहं असद्दहमाणे उट्ठाए उट्ठे, उत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी - जे बताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति, सेविताव वंदति नम॑सति सक्कारेति सम्माणेति कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति, किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चैव पव्वाविए, भगवया चैव मुंडाविए, भगवया चैव सेहाविए, भगवया चैव सिक्खाविए, भगवया चैव बहुस्सुतीकए, भगवओ चैव मिच्छं विप्पडिवन्ने ? तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला ! सच्चेव ते सा छाया, नो अण्णा ॥
१०८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तेणं अणगारेणं एवं वृत्ते समाणे आरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसि - मिसेमाणे सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावे ॥
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एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं कृत्वा द्विः अपि श्रमणं भगवन्तं महावीरम् उच्चावचाभिः आक्रोशनाभिः आक्रोशति, उच्चावचाभिः उद्घर्षणाभिः उद्घर्षति, उच्चावचाभिः निर्भर्त्सनाभिः निर्भर्त्सयन्ते, उच्चावचाभिः निश्छोटनाभिः निश्छोटयन्ति, निश्छोट्य एवमवादीत्-नष्टोऽसि कदाचित् विनष्टोऽसि कदाचित्, भ्रष्टोऽसि कदाचित् नष्ट - विनष्टभ्रष्टोऽसि कदाचित्, अद्य न भवसि नहि ते मत् सुखम् अस्ति ।
गोशालेन सुनक्षत्रस्य परितापन-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी कौशलजानपदः सुनक्षत्रः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावत् विनीतः धर्माचार्यानुरागेन एतमर्थम् अश्रद्दधानः उत्थया उत्तिष्ठति उत्थाय यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य गोशालं मंखलिपुत्रम् एवमवादीत्-यः अपि तावत् गोशाल !
तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा
अन्तिकम् एकम् अपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं निशाम्यति सः अपि तावत् वन्दते नमस्यति सत्करोति संमन्यते कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्ते, किमङ्ग पुनः त्वं गोशाल ! भगवता चैव प्रव्राजितः, भगवता चैव मुण्डितः, भगवता चैव शिक्षितः, भगवता चैव शिक्षयितः, भगवता चैव बहुश्रुतीकृतः, भगवतः चैव मिथ्या विप्रतिपन्नः ? तत् मा एवं गोशाल! सत्या एव तव सा छाया, नो अन्या
ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः सुनक्षत्रेण अनगारेण एवम् उक्ते सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए ' 'मिसिमिसेमाणे' सुनक्षत्रम् अनगारं तपसा तेजसा परितापयति ।
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भगवई
एक प्रहार में राख का ढेर कर दूसरी बार भी श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षणा - युक्त वचनों से उद्घर्षण किया, उच्चावच निर्भर्त्सना - युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कारयुक्त वचनों से तिरस्कार किया, तिरस्कार कर इस प्रकार कहा- तुम कभी आचार से नष्ट हो गए, तुम कभी विनष्ट हो गए, तुम कभी भ्रष्ट हो गए, तुम कभी नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो गए। आज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो
सकता।
गोशाल द्वारा सुनक्षत्र को परिताप-पद
१०७. उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर का अंतेवासी कौशल जनपद का निवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था । प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। धर्माचार्य के अनुराग से अनुरक्त था। इस अर्थ के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठने की मुद्रा में उठा उठकर जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया, वहां आकर मंखलिपुत्र गोशाल को इस प्रकार कहा- गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण करता है, वह उन्हें वंदन करता है, नमस्कार करता है, सत्कार सम्मान करता है, कल्याणकारी, मंगल, देव, और प्रशस्तचित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है । गोशाल ! भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, भगवान ने तुम्हें मुंडित किया, भगवान ने तुम्हें शैक्ष बनाया, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया, भगवान ने तुम्हें बहुश्रुत बनाया, तुम भगवान के प्रति ही मिथ्यात्व - विप्रतिपन्न हो गए? इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है । गोशाल ! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, तुम अन्य नहीं हो।
१०८. सुनक्षत्र अनगार के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया । उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर उसने अपने तपः तेज से सुनक्षत्र अनगार को परितापित किया।
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