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भगवई विणट्ठ-भट्ठे सि कदाइ, अज्ज न भवसि, नाहि ते ममाहिंतो सुहमत्थि॥
कदाचित् भ्रष्टोऽसि कदाचित्, नष्ट- विनष्ट-भ्रष्टोऽसि कदाचित्, अद्य न भवसि नहि ते मत् सुखम् अस्ति।
श. १५ : सू. १०४-१०६ कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से नष्ट हो गए, कभी विनष्ट हो गए, कभी भ्रष्ट हो गए, तुम कभी नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो गए। आज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता।
पदम्
गोसालेण सव्वाणुभतिस्स भासरासी- गोशालेन सर्वानुभूतेः भस्मराशि-करण- गोशाल द्वारा सर्वानुभूति का भस्म-राशि करणकरण-पदं १०४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य १०४. उस काल उस समय श्रमण भगवान् भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईण- भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी महावीर के अन्तेवासी पूर्वजनपद के निवासी जाणवए सव्वाणुभूती नाम अणगारे प्राचीन-जानपदः सर्वानुभूतिः नाम सर्वानुभूति नाम का अनगार था। वह प्रकृति पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणु- अनगारः प्रकृतिभद्रक: प्रकृत्युपशान्तः से भद्र और उपशान्त था। उसके क्रोध, कोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदु- मान, माया और लोभ प्रतनु थे। वह मृदुअल्लीणे विणीए धम्मायरियाणुरागेणं मार्दवसम्पन्नः आलीनः विनीतः मार्दव सम्पन्न, आलीन (संयतेन्द्रिय) और एयमढं असदहमाणे उठाए उट्टेइ, उठेत्ता धर्माचार्यानुरागेन एतमर्थम् अश्रद्दधानः । विनीत था। धर्माचार्य के अनुराग से अनुरक्त जेणेव गोसाले मखलिपुत्ते तेणेव उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव था। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए वह उठने उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं । गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव की मुद्रा में उठा, उठकर जहां मंखलिपुत्र मंखलिपुत्ते एवं बयासी-जे वि ताव उपागच्छति, उपागम्य गोशालं गोशाल था वहां आया, वहां आकर गोसाला! तहारूवस्म समणस्स वा मंखलिपुत्रम् एवमवादीत्-यः अपि मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहामाहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं तावत् गोशाल! तथारूपस्य श्रमणस्य गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण धम्मियं सुवयणं निसामेति, से वि ताव वा माहनस्य वा अन्तिकम् एकम् अपि के पास एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण वंदति नमसति सक्कारेति सम्माणेति आर्य धार्मिकं सुवचनं निशाम्यति, सः करता है, वह भी उन्हें वन्दन करता है। कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पज्जुवासति, अपि तावत् वन्दते नमस्यति नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चेव सत्कारयति सम्मानयति कल्याणं मङ्गलं है, कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्तपव्वाविए, भगवया चेव मुंडाविए, देवतं चैत्यं पर्युपास्ते, किमङ्ग पुनः त्वं चित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। भगवया चेव सेहाविए, भगक्या चेव । गोशाल! भगवता चैव प्रव्राजितः, गोशाल! भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुतीकए, भगवता चैव मुण्डितः, भगवता चैव भगवान् ने तुम्हें मुंडित किया, भगवान् ने तुम्हें भगवओ चेव मिच्छं विपडिवन्ने? तं मा शिक्षितः, भगवता चैव शिक्षयितः, शैक्ष बनाया, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया, एवं गोसाला! नारिहसि गोसाला! सचेव भगवता चैव बहुश्रुतीकृतः, भगवतः भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत बनाया। तुम भगवान् ते सा छाया, नो अण्णा॥
चैव मिथ्या विप्रतिपन्नः? तत् मा एवं के प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? गोशाल! नार्हसि गोशाल! सत्या एव गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए तव सा छाया, नो अन्या।
उचित नहीं हैं। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, अन्य नहीं है।
१०५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं एवं बुत्ते सर्वानुभूतिना अनगारेण एवम् उक्ते समाणे आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः मिसिमिसेमाणे सव्वाणुभूतिं अणगारं 'चंडिक्किए' 'मिसिमिसेमाणे' तवेणं तेएणं एगाहचं कडाहचं भासरासिं सर्वानुभूतिम् अनगारं तपसा तेजसा करेति॥
एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं करोति।
१०५. सर्वानुभूति अनगार के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर उसने सर्वानुभूति अनगार को अपने तपः-तेज से कूटाघात की भांति एक प्रहार में राख का ढेर कर दिया।
१०६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः . गोशालः मंखलिपुत्रः १०६. मंखलिपुत्र गोशाल सर्वानुभूति अनगार सव्वाणभतिं अणगारं तवेणं तेएणं सर्वानुभूतिम् अनगारं तपसा तेजसा को अपने तपः-तेज से कूटाघात की भांति
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