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________________ श. १५ : सू. १०२,१०३ तं अणुपविसामि, अणुप्पविसित्ता सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि। एवामेव आउसो कासवा! एगेणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाया, तं सुट्ट णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी साहू णं आ- उसो कासवा! मम एवं वयासी-गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी॥ २६२ भगवई संघयनम् इति कृत्वा तम् सहन करने वाला, स्थिर संहनन वाला अनुप्रविशामि, अनुप्रविश्य षोडश जानकर उसमें अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश वर्षाणि इमं सप्तमं 'पउट्ट परिहारं' कर सोलह वर्षों से इस सातवें 'पोट्ट परिहरामि। एवमेव आयुष्मन्! काश्यप! परिहार'! में मैं रह रहा हूं। आयुष्मन् एकेन त्रयस्त्रिंशता वर्षशतेन सप्त 'पउट्ट काश्यप! इसी प्रकार मैंने एक सौ तैतीस वर्षों परिहारा' परिहृताः भवन्ति इति । में मेरे ये सात पोट्ट परिहार हुए हैं। यह मैं आख्याताः, तत् सुष्ठु आयुष्मन् कहता हूं। इसलिए आयुष्मन् काश्यप! तुमने काश्यप! माम् एवमवादीत्-साधु मुझे इस प्रकार अच्छा कहा। आयुष्मन् आयुष्मन् काश्यप! माम् एवमवादीत्- काश्यप! तुमने मुझे इस प्रकार साधु गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी, कहा-मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी। है, मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है। भगवया गोसालगवयणस्स पडियार-पदं भगवता गोशलकवचनस्य प्रतिकार-पदम् भगवान् द्वारा गोशालक के वचन का प्रतिकार १०२. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं ततः श्रमणः भगवान् महावीरः गोशालं १०२. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र मंखलिपुत्तं एवं बयासी-गोसाला! से मंखलिपुत्र एवमादीत-गोशाल! सः गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! जैसे जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहिं यथा-नामकः स्तेनकः स्यात्, ग्रामेयकैः ।। कोई चोर है। वह ग्रामीणों द्वारा कहीं पर भी परब्भमाणे-परब्भमाणे कत्थ य गहुं वा परभवन् परभवन् कुत्र च गर्तं वा दरी वा गड्डा, गुफा, दुर्ग, निम्न स्थान, पर्वत अथवा दरिं वा दुग्गं वा णिण्णं वा पव्वयं वा दुर्गं वा निम्न वा पर्वतं वा विषमं वा । विषम स्थान के न मिलने पर एक बड़े ऊन के विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं ___ अनासादयन् एकेन महता ऊर्णालोम्ना कंबल से, सण के रोम से, कपास के बने हुए उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा वा शणलोम्ना वा कसिपक्ष्मणा वा रोम से, तृण सूत्र से अपने आपको आवृत कर कपासपम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं तृणसूकेन वा आत्मानम् आवृत्य बैठ जाता है, वह अनावृत होकर भी अपने आवरेत्ताणं चिट्ठज्जा, से णं अणावरिए तिष्ठेत्, सः अनावृतः आवृतम् इति आपको आवृत मानता है, अप्रच्छन्न होते हुए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, आत्मानं मन्यते, अप्रच्छन्नः च प्रच्छन्नम् भी अपने आपको प्रच्छन्न मानता है, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं इति आत्मानं मन्यते, 'अणिलुक्के अदृश्य-छिपा हुआ न होते हुए भी अपने मण्णइ, अणिलुक्के णिलुक्कमिति णिलुक्कम्' इति आत्मानं मन्यते, आपको अदृश्य मानता है। इसी प्रकार अप्पाणं मण्णइ, अपलाए पलायमिति अपलायितः पलायितम् इति आत्मानं गोशाल! तुम अन्य न होकर भी अपने अप्पाणं मण्णइ, एवामेव तुम पि मन्यते, एवमेव त्वम् अपि गोशाल! आपको अन्य बता रहे हो, इसलिए गोशाल! गोसाला! अणण्णे संते अण्णमिति अनन्यः सन् अन्यम् इति आत्मानम् तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित अप्पाणं उपलभसि, तं मा एवं गोसाला! उपलभसे, तत् मा एवं गोशाल! नार्हसि नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी नारिहसि गोसाला! सच्चेव ते सा छाया गोशाल! सत्या एव तव सा छाया नो छाया है, अन्य नहीं है। नो अण्णा॥ अन्या । गोसालस्स पुणरक्कोस-पदं गोशालस्य पुनः आक्रोश-पदम् १०३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणेन समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति समाणे आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए आशुरक्तः रूष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' मिसिमिसेमाणे समणं भगवं महावीरं 'मिसिमिसेमाणे' श्रमणं भगवंतं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, महावीरम् उचावचाभिः आक्रोशनाभिः उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेति, आक्रोशति, उच्चावचाभिः उदघर्षणाभिः उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निम्भंछेति, उद्घर्षति, उच्चावचाभिः निर्भर्त्सनाभिः उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, निर्भर्त्सयन्ते, उच्चवचाभिः निश्छोटनाभिः निच्छोडेता एवं वयासी-नट्टे सि कदाइ, निश्छोटयन्ति, निश्छोट्य एवमवादीत्विणद्वेसि कदाइ, भट्ठे सि कदाइ, नट्ठ- नष्टोऽसि कदाचित, विनष्टोऽसि गोशाल का पुनः आक्रोश-पद १०३. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षणा-युक्त वचनों से उद्घर्षण किया, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कारयुक्त वचनों से तिरस्कार किया। तिरस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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