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________________ भगवई ८७ श. १२ : उ. ६ : सू. १९२-१६६ उसका संस्थान काल जघन्यतः एक समय उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्व कोटि है। भाष्य १. सूत्र १६॥ संचिट्ठणा का अर्थ है-एक गति के पर्याय का अनुबंध, एक विषय को विस्तार से समझाया है-कोई संशयशील होने पर छठे गति में होने वाली अवस्थिति।' विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य है गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में आ जाता है, सम्यक्त्व और भगवई १/१०३-१११ सूत्र तथा भाष्य। चारित्र-दोनों से रहित हो जाता है। तत्काल पुनः प्रथम से छठे धर्मदेव का संस्थान काल जघन्यतः एक समय बतलाया गया गुणस्थान में आ जाता है। एक समय इस अवस्था में रहकर उसकी है। वृत्तिकार के अनुसार एक मुनि अशुभ भाव में गया और उससे मृत्यु हो जाती है। इस अपेक्षा से उसका जघन्य काल एक समय निवृत्त हो पुनः शुभ भाव में आया। शुभ भाव में आने के अनंतर बतलाया गया है। यह नैसर्गिक घटना है। क्रियात्मक भाव का आना प्रथम समय में देहावसान हो गया। इस अपेक्षा से धर्मदेव की और जाना कम से कम असंख्य समय के बिना नहीं हो सकता। एक जघन्यतः एक समय की स्थिति बतलायी गयी है। जयाचार्य ने इस समय के संस्थान-काल का मूल आधार पचीसवें शतक में हैं।' पंचविह-देवाणं अंतर-पदं १६२. भवियदव्वदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो॥ पञ्चविध-देवानाम् अन्तर-पदम् पंचविध देवों का अन्तर-पद भव्यद्रव्यदेवस्य भदन्त! कियत् कालम् १६२. भंते! भव्यद्रव्य देव का अन्तरकाल अन्तरम् भवति? कितना होता है? गौतम! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त से कुछ अन्तर्मुहूर्तमभ्यधिकानि, उत्कर्षेण । अधिक दस हजार वर्ष, उत्कृष्टतः अनंत अनन्तं कालं-वनस्पतिकालः। काल-वनस्पति काल। १६३. नरदेवाणं-पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सातिरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अणंतं कालंअवड्पोग्गलपरियट देसूणं॥ नरदेवानाम्-पृच्छा। गौतम! जघन्येन सातिरेकं सागरोपमम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालम् अपार्धं पुद्गलपरिवर्तं देशोनम्। १६३. नरदेवों की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः कुछ अधिक सागरोपम, उत्कृष्टतः अनंतकाल-कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्त। १६४. धम्मदेवस्स णं-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवई पोग्गलपरियट्ट देसूणं॥ धर्मदेवस्य-पृच्छा। गौतम! जघन्येन पल्योपमपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालं यावत् अपार्धं पुद्गलपरिवर्तं देशोनम्। १६४. धर्मदेव की-पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः पृथक्त्व पल्योपम, उत्कृष्टतः अनंतकाल यावत् कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्त। १६५. देवातिदेवाणं-पुच्छा। गोयमा ! नत्थि अंतरं॥ देवातिदेवानाम्-पृच्छा। गौतम! नास्ति अन्तरम् । १९५. देवातिदेवों की पृच्छा । गौतम ! अंतरकाल नहीं। १६६. भावदेवस्स णं-पुच्छा। भावदेवस्य-पृच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अं गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षण उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइ- अनन्तं कालं-वनस्पतिकालः। कालो॥ १६६. भावदेव की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अनंत काल-वनस्पति काल। १. भ. वृ. १२/१६१-संस्थितिरपि तत्पर्यायानुबंधः । २. भ. वृ. १२/१६१-धर्मदेवस्य जघन्येनैकं समयं स्थितिः अशुभभावं गत्त्वा ततो निवृत्तस्य शुभभावप्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणादिति। ३. भ. जो. ४/२६/८६-८६ जघन्य समय इक न्हाल, धर्मदेव संचिट्ठणा। ते किण रीत संभाल? तास न्याय इम संभवै॥ शंका पड़ियां ताय, छट्ठा गुणठाणां थकी। प्रथम गुणठाणे आय, सम्यक्त्व चरण विहं गयां॥ शंका मिटियां तेह, चारित्र सम्यक्त्व बिहुं वली। तुस्त तास आबेह, समय एक रही. मरे। इम संचिट्ठणकाल, जघन्य समय इक संभवै। उत्कृष्टे सुविशाल, पूर्व कोड़ देसूण ही॥ (ज. स.) ४. भ. २५/४२५,४२७,५३३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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