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श. १२ : उ. ६ : सू. १८८-१६१
भगवई १८८. जइ देवेसु उववज्जति किं यदि देवेषु उपपद्यन्ते किं भवनवासी- १८८. यदि देवों में उपपन्न होते हैं तो क्या भवणवासि-पुच्छा। पृच्छा ।
भवनवासी देवों में उपपन्न होते हैं ?- पृच्छा। गोयमा! नो भवणवासिदेवेसु गौतम! नो भवनवासिदेवेषु उपपद्यन्ते, गौतम ! भवनवासी देवों में उपपन्न नहीं उववज्जंति, नो वाणमंतरदेवेसु नो वानमन्तरदेवेषु उपपद्यन्ते, नो होते। वाणमन्तर देवों में उपपन्न नहीं होते, उववज्जंति, नो जोइसियदेवेसु ज्योतिष्कदेवेषु उपपद्यन्ते, वैमानिक- ज्योतिष्क देवों में उपपन्न नहीं होते, उववज्जंति, वेमाणियदेवेसु उववन्जंति। देवेषु उपपद्यन्ते। सर्वेषु वैमानिकेषु वैमानिक देवों में उपपन्न होते हैं। सव्वेसु वेमाणिएसु उववज्जंति जाव उपपद्यन्ते यावत् सर्वार्थसिद्ध- सर्व वैमानिक देवों में उपपन्न होते हैं यावत् सम्वसिद्ध - अणुत्तरोववाइयवेमाणिय- ___ अनुत्तरोपपातिकवैमानिकदेवेषु
सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक वैमानिक देवों देवेसु उववज्जंति, अत्थेगतिया सिझंति उपपद्यन्ते। अस्त्येककाः सिध्यन्ति में उपपन्न होते हैं। जाव सब्वदुक्खाणं अंतं करेंति॥ यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति। उनमें कुछ धर्मदेव सिद्ध होते हैं यावत् सर्व
दुःखों का अन्त करते हैं।
१६. देवातिदेवा अणंतरं उबट्टित्ता कहिं देवातिदेवाः अनन्तरम् उद्वर्त्य-कुत्र १८६. देवातिदेव अनन्तर उद्वर्तन कर कहां गच्छंति ? कहिं उववज्जति ? ___ गच्छन्ति? कुत्र उपपद्यन्ते?
जाते हैं? कहां उपपन्न होते हैं? गोयमा ! सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं गौतम! सिध्यन्ति यावत् सर्वदुःखानाम् गौतम! सिद्ध हो जाते हैं यावत् सर्व दुःखों अंतं करेंति॥ अन्तं कुर्वन्ति ।
का अंत करते हैं।
१०. भावदेवा णं भंते! अणंतरं
उव्वट्टित्ता-पुच्छा। जहा वक्कंतीए असुरकुमाराणं उन्वट्टणा तहा भाणियव्या॥
भावदेवाः भदन्त! अनन्तरम् उदवर्त्यपृच्छा। यथा अवक्रान्त्यां असुरकुमाराणाम् उद्वर्तना तथा भणितव्या।
१९०. भंते ! भावदेव अनन्तर उद्वर्तन
कर-पृच्छा। जैसे-प्रज्ञापना के अवक्रांति पद (६/१०११०२) में असुरकुमार देवों का उद्वर्तन वक्तव्य है वैसे ही यहां वक्तव्य है।
भाष्य
१. सूत्र १८५-१६०
वक्तव्य है, जैसेनरदेव की गति केवल नरक बतलायी गयी है, यह सापेक्ष है। भवनपति, वानमंतर, ज्योतिष्क और सौधर्म ईशान के देवों का नरदेव-अवस्था में मृत्यु होने पर वह नरक में उत्पन्न होता है। नरदेवत्व उपपात बादर पर्याप्तक-पृथ्वी, अप, वनस्पति तथा संज्ञी पर्याप्तक अवस्था का त्याग कर देने पर वह स्वर्ग में भी उत्पन्न हो सकता है संख्येय वर्ष आयुष्य वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में होता है। और मुक्त भी हो सकता है। नरदेव अवस्था का त्याग कर धर्मदेव • सनत्कुमार से सहस्रार तक के देवों का उपपात संज्ञी अवस्था में चले जाने पर उसकी गति में परिवर्तन हो जाता है इसलिए पर्याप्तक संख्येय वर्ष आयुष्य वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में यह परस्पर विरोधी तथ्य नहीं है।'
होता है। भावदेव देवगति से उद्वर्तन कर दो गतियों में उत्पन्न होता है • आनत से सर्वार्थसिद्ध तक के देवों का उपपात संज्ञी तिर्यंच गति और मनुष्य गति। यह प्रज्ञापना के अवक्रांतिपद की भांति पर्याप्तक संख्येय वर्ष आयुष्य वाले मनुष्य में होता है। पंचविह-देवाणं संचिट्ठणा-पदं
पञ्चविध-देवानां संस्थान-पदम् पंचविध देवों का संस्थिति पद १६१. भवियदव्वदेवे णं भंते !भविय- भव्यद्रव्यदेवः भदन्त! भव्यद्रव्यदेवे १६१. भंते ! भव्यद्रव्य देव भव्यद्रव्य देव के रूप दव्वदेवे त्ति कालओ केवचिरं होइ? कालतः कियचिरं भवति?
में कितने काल तक रहता है। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त उत्कृष्टतः उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। त्रीणि पल्योपमानि।
तीन पल्योपम। एवं जच्चेव ठिई तच्चेव संचिट्ठणा वि जाव __ एवं या चैव स्थितिः तच्चैव संस्थानम् इसी प्रकार जो भवस्थिति बतलाई गई है, भावदेवस्स, नवरं-धम्मदेवस्स जहण्णेणं __ अपि यावत् भावदेवस्य, नवरम्-धर्म- वही उनका संस्थान काल है। यह नियम एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा देवस्य जघन्येन एक समयम. उत्कर्षण नरदेव, देवातिदेव और भावदेव-सबके लिए पुब्बकोडी॥ देशोना पूर्वकोटिः।
समान है। केवल धर्मदेव इसका अपवाद है। १. भ. वृ. १२/१९६-तत्र च यद्यपि केचिच्चक्रवर्तिनो देवेषूत्पद्यन्ते तथापि ते २. पण्ण. ६/१०१-१०२।
नरदेवत्यागेन धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः।
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