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भगवई
भावदेवा जहा भवियदव्वदेवा ।।
१. सूत्र १८३-१८४
प्रस्तुत आलापक में पंचविध देवों की विक्रिया-रूप निर्माण की क्रिया पर विचार किया गया है। रूप निर्माण के महत्त्वपूर्ण विकल्प बतलाए गए हैं
१. एकेन्द्रिय जीव के रूप का निर्माण ।
अनेक एकेन्द्रिय जीव के रूप का निर्माण ।
इसी प्रकार द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का निर्माण किया जाता है।
पंचविह- देवाणं उब्वट्टण-पदं १८५. भवियदव्वदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहिं उववज्जंति - किं नेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति ?
गोयमा ! नो नेरइएस उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मणुस्सेसु, देवेसु उववज्जति ।
'जइ देवेसु उववज्जंति ?
सव्वदेवे सव्ववसिद्धत्ति ॥
उववज्जंति
१८६. नरदेवा णं भंते! अनंतरं उब्वट्टित्ता - पुच्छा । गोयमा ! नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोगिएसु, नो मणुस्सेसु नो देवेसु उववज्जति । जइ नेरइएसु उववज्र्ज्जति ? सत्तसु वि पुढवीसु उववज्र्ज्जति ॥
१८७, धम्मदेवा णं भंते! अनंतरं उब्वट्टित्ता - पुच्छा | गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मणुस्सेसु, देबेसु उववज्जति ॥
१. ( क ) भ. जो. ४, २६७ /६३ :
जाव
संबद्धा ते मां हो मां मिल्या, अणमिल्या ते असंबंद्ध हो ।
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भावदेवाः यथा भव्यद्रव्यदेवाः ।
भाष्य
८५
२. संख्येय रूपों का निर्माण । असंख्येय रूपों का निर्माण |
३. संबद्ध (अपने शरीर से संलग्न) रूपों का निर्माण । असंबद्ध (अपने शरीर से पृथक्भूत) रूपों का निर्माण ।' ४. सदृश रूपों का निर्माण ।
असदृश रूपों का निर्माण ।
देवातिदेव में विक्रिया-रूप निर्माण करने की शक्ति होती है पर वे उसका प्रयोग नहीं करते।
पञ्चविध-देवानाम् उद्वर्तन-पदम् भव्यद्रव्यदेवाः भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गच्छन्ति ? उपपद्यन्ते किं नैरयिकेषु उपपद्यन्ते यावत् देवेषु उपपद्यन्ते?
कुत्र
गौतम! नो नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो तिर्यग्योनिकेषु, नो मनुष्येषु देवेषु उपपद्यन्ते ।
यदि देवेषु उपपद्यन्ते ? सर्वदेवेषु उपपद्यन्ते यावत् सर्वार्थसिद्धः इति ।
नरदेवाः भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्यपृच्छा ।
गौतम! नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो तिर्यग्योनिकेषु, नो मनुष्येषु, नो देवेषु उपपद्यन्ते?
यदि नैरयिकेषु उपपद्यन्ते ? सप्तसु अपि पृथिवीषु उपपद्यन्ते ।
श. १२ : उ. ६ : सू. १८५- १८७ क्रियात्मक रूप में उन्होंने कभी अतीत में विक्रिया नहीं की, वर्तमान में नहीं करते और भविष्य में नहीं करेंगे । भावदेव भव्यद्रव्यदेव की भांति वक्तव्य हैं।
धर्मदेवाः भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्यपृच्छा ।
गौतम ! नो नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो तिर्यग्योनिकेषु, नो मनुष्येषु देवेषु उपपद्यन्ते ।
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पंचविध देवों का उद्वर्तन पद
१८५. भंते ! भव्यद्रव्यदेव अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाते हैं ? कहां उपपन्न होते हैं-क्या नैरयिकों में उपपन्न होते हैं यावत् देवों में उपपन्न होते हैं ?
गौतम ! नैरयिकों में उपपन्न नहीं होते, तिर्यक्योनिकों में उपपन्न नहीं होते, मनुष्यों में उपपन्न नहीं होते, देवों में उपपन्न होते हैं। यदि देवों में उपपन्न होते हैं ? सब देवों में उपपन्न होते हैं यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों में उपपन्न होते हैं।
१८६. भंते! नरदेव अनंतर उद्वर्तन कर-पृच्छा।
गौतम! नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। तिर्यक्योनिकों, मनुष्यों और देवों में उपपन्न नहीं होते।
यदि नैरयिकों में उपपन्न होते हैं तो ? सातों पृथ्वियों में उपपन्न होते हैं।
१८७. भंते! धर्मदेव अनंतर उद्वर्तन करपृच्छा ।
गौतम ! नैरयिकों में उपपन्न नहीं होते तिर्यक्योनिकों और मनुष्यों में उपपन्न नहीं होते। देवों में उपपन्न होते हैं।
(ख) भ. ५ / १३८ का भाष्य ।
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