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भगवई
श. १२ : उ. ६ : सू. १८२-१८४
८४ १८२. भावदेवाणं-पुच्छा।
भावदेवानां-पृच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससह- गौतम! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, स्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि। सागरोवमाई॥
१८२. भावदेवों की पृच्छा।
गौतम! जघन्यतः दस हजार वर्ष, उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपमा
भाष्य १. सूत्र १७८-१८२
इसका संबंध भगवान् महावीर की जीवन-सीमा से है। ये दोनों भव्यद्रव्यदेव का उत्कृष्ट आयुमान तीन पल्योपम है। यह नियम तथ्य परक प्रतीत होते हैं। इन्हें स्थायी नियम की कोटि में असंख्यात वर्ष वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्यों की अपेक्षा से होता है। कैसे रखा जा सकता है? नरदेव का जघन्य आयुमान सात सौ वर्ष है, इसका निदर्शन है धर्मदेव की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है। जिसका आयुष्य ब्रह्मदत्त। उत्कृष्ट आयुमान चौरासी लाख पूर्व है, इसका निदर्शन है अंतर्मुहर्त आवशिष्ट है, वह संयम स्वीकार करता है. इस अपेक्षा से भरत।
जघन्य स्थिति का प्रतिपादन है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्व एक प्रश्न उपस्थित होता है-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का आयुमान कोटि की बतलाई गई है। वृत्तिकार के अनुसार आठ वर्ष का शिशु सात सौ वर्ष था। उस आधार पर नरदेव का जघन्य आयुष्य दीक्षा के योग्य होता है। इस विषय में प्रस्तुत आगम के पच्चीसवें कालमान निर्धारित किया गया अथवा यह उत्कृष्ट आयुमान की शतक के सूत्र ५-३३ और उसकी जयाचार्य कृत जोड़ द्रष्टव्य है।' भांति सामान्य नियम है?
औपपातिक के अनुसार जघन्यतः सातिरेक आठ वर्ष वाला देवातिदेव की जघन्य स्थिति बहत्तर वर्ष की बतलाई गई है। मुक्त हो सकता है।
*पद
पंचविह-देवाणं विउव्वणा-पदं
पञ्चविध-देवानाम् विकुर्वणा-पदम् पंचविध देवों का विक्रिया पद १८३. भवियदबदेवा णं भंते ! किं एगत्तं भव्यद्रव्यदेवाः भदन्त! किम् एकत्वं प्रभुः १५३. भंते ! क्या भव्यद्रव्यदेव एक रूप विक्रिया
पभू विउवित्तए ? पुहत्तं पभू विकर्तुम्? पृथक्त्वं प्रभुः विकर्तुम्? करने में समर्थ हैं? अनेक रूप विक्रिया विउवित्तए ?
करने में समर्थ हैं? गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, गौतम! एकत्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्, गौतम! एक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ पुहत्तं पि पभू विउवित्तए। एगत्तं पृथक्त्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्। एकत्वं हैं, अनेक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ विउज्वमाणे एगिदियरूवं वा जाव विकुर्वाणः एकेन्द्रियरूपं वा यावत् हैं। एक रूप विक्रिया करता हुआ एकेन्द्रिय पंचिंदियरूवं वा, पहत्तं विउब्बमाणे पञ्चेन्द्रियरूपं वा, पृथक्त्वं विकुर्वाणः रूप यावत् अथवा पंचेन्द्रिय-रूप, अनेक एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदिय- एकेन्द्रियरूपाणि वा यावत् रूप विक्रिया करता हुआ एकेन्द्रिय रूपों रूवाणि वा, ताई संखेज्जाणि वा पञ्चेन्द्रियरूपाणि वा, तानि संख्येयानि यावत् अथवा पंचेन्द्रिय रूपों की विक्रिया असंखेज्जाणि वा, संबद्धाणि वा वा असंख्येयानि वा, संबद्धानि वा करता है। वे रूप संख्येय अथवा असंख्येय, असंबद्धाणि वा, सरिसाणि वा असरि- ___ असंबद्धानि वा, सदृशानि वा संबद्ध अथवा असंबद्ध, सदृश अथवा साणि वा विउव्वंति, विउवित्ता तओ असदृशानि वा विकुर्वन्ति, विकृत्य ततः असदृश होते हैं, विक्रिया करने के पश्चात् पच्छा जहिच्छियाई कज्जाई करेंति। एवं पश्चात् यथेप्सितानि कार्याणि कुर्वन्ति। इच्छानुसार कार्य करते हैं। इसी प्रकार नरदेवा वि, एवं धम्मदेवा वि॥ एवं नरदेवाः अपि, एवं धर्मदेवाः अपि। नरदेव की भी वक्तव्यता, इसी प्रकार
धर्मदेव की भी वक्तव्यता।
१८४. देवातिदेवाणं-पुच्छा।
देवातिदेवानाम्-पृच्छा? गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, गौतम! एकत्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्, पुहत्तं पि पभू विउवित्तए, नो चेव णं । पृथक्त्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्, नो चैव संपत्तीए विउब्बिसु वा, विउव्दिति वा, सम्प्राप्त्या व्यकार्युः वा, विकुर्वन्ति वा, विउविस्संति वा।
विकरिष्यन्ति वा।
१८४. देवातिदेवों की-पृच्छा।
गौतम ! एक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ हैं, अनेक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ हैं। यह विषय विक्रिया करने की शक्ति की दृष्टि से बताया गया है किंतु
१. भ. वृ. १२/१७६-सत्तवाससयाई ति यथा ब्रह्मदत्तस्य चउरासीपुव्वसय
सहस्साई ति यथा भरतस्य। २. वही, १२/१८०-उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी त्ति तु यो देशोनपूर्व-
कोट्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति, ऊनता च पूर्वकोट्या
अष्टाभिवर्षः अष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याहत्वात्, यच षड्वर्षस्त्रिवर्षों वा प्रव्रजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा तत्कादाचित्कमिति न सूत्रायतारीति। ३. भ. जो. ४५६/३६-३८। ४. औ. १८५।
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