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भगवई
केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? अणतेहिं ।
सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥
६५. एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? एवं जहेव जीवत्थिकायस्स ।
१३७
कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? अनन्तैः ।
शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य ।
एकः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? एवं यथैव जीवास्तिकायस्य ।
१. सूत्र ६४-६५
जीवास्तिकाय का एक प्रदेश लोकान्त के कोने में होता है, उस समय वह धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है - एक प्रदेश ऊपर अथवा नीचे, दो प्रदेश दो दिशाओं में, एक प्रदेश वह जिस पर जीव का प्रदेश अवगाढ है।
६७. तिष्णि भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? जहणपदे अहिं, उक्कोसपदे सत्तर सहिं । एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि ।
भाष्य
जीवास्तिकाय का एक प्रदेश आकाश आदि के एक प्रदेश पर केवली - समुद्घात के समय में ही उपलब्ध होता है।'
जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। वे समुदित अवस्था में रहते हैं। ६६. दो भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? गोयमा ! जहण्णपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहिं । एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ?
बारसहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥
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द्वौ भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशौ कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टौ ? गौतम! जघन्यपदे षड्भिः, उत्कर्षपदे द्वादशभिः । एवं अधर्मास्तिकायप्रदेशैः अपि ।
कियद्भिः आकाशस्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टौ ? द्वादशभिः । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य ।
श. १३ : उ. ४ : सू. ६५-६७ वास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से।
शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता ।
उनमें संकोच और विस्तार की क्षमता है पर एक प्रदेश कहीं पृथक् रूप में उपलब्ध नहीं होता। यह सामान्य नियम है। केवली समुद्घात एक विशेष नियम है। उस समय जीव का एक-एक प्रदेश आकाश के एक-एक प्रदेश पर अवगाढ होता है। द्रष्टव्य, भगवई २/७४ का भाष्य ।
पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश का तात्पर्य है एक परमाणु । जीवास्तिकाय के एक प्रदेश की भांति इसके स्पर्श की वक्तव्यता ।
६५. भंते! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? इसी प्रकार जीवास्तिकाय की भांति
वक्तव्यता।
त्रयः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टाः ? जघन्यपदे अष्टभिः, उत्कर्ष दे सप्तदशभिः। एवम् अधर्मास्तिकायप्रदेशैः अपि ।
आगासत्थिकायपदेसेहिं कियद्भिः
आकाशास्तिकायप्रदेश:
केवतिएहिं पुट्ठा ?
स्पृष्टाः ?
सत्तरसहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । सप्तदशभिः । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य । सतरह से। शेष धर्मास्तिकाय की भांति एवं एएणं गमेणं भाणियव्वा जाव दस, एवम् एतेन गमेन भणितव्याः यावत् दश, वक्तव्यता । इस गमक के अनुसार यावत् नवरं - जहण्णपदे दोण्णि पक्खिवियव्वा, नवरम् - जघन्यपदे द्वौ प्रक्षेप्तव्यौ, दस तक की वक्तव्यता, इतना विशेष हैउक्कोसपदे पंच। चत्तारि पोम्गलत्थि - उत्कर्षपदे पञ्च। चत्वारः पुद्गलास्ति- जघन्य-पद में दो का प्रक्षेप करणीय हैं, कायस्स पदेसा जहण्णपदे दसहिं, कायस्य प्रदेशा: जघन्यपदे दशभिः, उत्कृष्ट-पद में पांच का। पुद्गलास्तिकाय के उक्कोसपदे बावीसाए। पंच पोग्गल- उत्कर्ष दे द्वाविंशत्या । पञ्च चार प्रदेश जघन्य पद में दस से, उत्कृष्टत्थिकायस्स पदेसा जहणपदे बारसहिं पुद्गलास्तिकायस्य प्रदेशाः जघन्यपदे पद में बाईस से। पुद्गलास्तिकाय के पांच १. भ. वृ. १३/६४ - जघन्यपदे लोकांत कोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शक- जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवं एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राकाशप्रदेशानां चतुर्भिरिति कथम् ? अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र प्रदेशादौ केवीसमुद्घात एव लभ्यते इति ।
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६६. भंते! पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश
धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? गौतम ! जघन्य पद में छह से, उत्कृष्ट पद में बारह से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट हैं ?
बारह से । शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता।
६७. भंते! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? जघन्य - पद में आठ से, उत्कृष्ट-पद में सतरह से । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ?
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