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________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ६४ केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? छहिं । केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? सिय पुढे सिय नो पुट्ठे । जइ पुढे नियमं अणतेहिं । एवं पोगलत्थिकायपदेसेहिं वि, अद्धासमएहिं वि॥ केवतिएहिं पुढे ? सत्तहिं । १३६ Jain Education International कियद्भिः स्पृष्टः ? षड्भिः । कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? आकाशास्तिकायप्रदेशैः एवं स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः, यदि स्पृष्टः नियमम् अनन्तैः । पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः अध्वासमयैः अपि । अपि, भाष्य आगासत्थिकायपदेसेहिं कियद्भिः स्पृष्टः ? सप्तभिः । १. सूत्र ६३ धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट होता है तो वह धर्मास्तिकाय के पांच प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। आकाशास्तिकाय लोक और अलोक दोनों में है। लोक में विद्यमान आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश अधर्मास्तिकाय से स्पृष्ट होता है और अलोक में विद्यमान वह धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं होता। लोकान्तवर्ती धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से एक अग्रवर्ती अलोकाकाश का प्रदेश स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, उसके अधोवर्ती ऊपरिवर्ती तथा तीन दिशाओं में वर्तमान धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है तो वह धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश वक्रगत होता है तो वह धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, उसके अधोवर्ती, ऊपरिवर्ती तथा चार दिशाओं में वर्तमान धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है तो वह धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है।' यदि आकाश के एक प्रदेश के अग्रवर्ती, अधोवर्ती और ऊपरिवर्ती धर्मास्तिकाय के प्रदेश होते हैं तो वह धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से पृष्ट होता है। अधर्मास्तिकाय के स्पर्श के नियम धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य हैं। जीवास्तिकाय के प्रदेश -स्पर्श के नियम-यदि अलोकाकाश का प्रदेश है तो वह जीव से स्पृष्ट नहीं है। यदि वह लोक का प्रदेश है तो वह जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेशों से स्पृष्ट है। यदि आकाश का एक प्रदेश लोकान्त के कोने में स्थित होता है तो वह धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, उसके द्वारा अवगाढ एक प्रदेश, दो दिशाओं में स्थित अधोवर्ती और ऊपरिवर्ती एक-एक प्रदेश- इस प्रकार वह धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश - स्पर्श नियम भी जीवास्तिकाय की उसके अधोवर्ती, ऊपरिवर्ती तथा दो दिशाओं में वर्तमान भांति वक्तव्य हैं। अद्धासमय के नियम भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं। ६४. एगे भंते! जीवत्थिकायपदेसे एक: भदन्त ! जीवास्तिकायप्रदेश: कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? जघन्यपदे चतुर्भिः, उत्कर्षपदे सप्तभिः । एवं अधर्मास्तिकायप्रदेश: अपि । केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? जहण्णपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं । एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। आकाशास्तिकाय प्रदेशैः १. भ. वृ. सू. १३/६३ - सिय पुट्ठेत्ति लोकमाश्रित्य सिय नो पुट्टेति अलोकमाश्रित्य जइ पुट्टेत्यादि यदि स्पृष्टस्तदा जघन्यपदे एकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः, कथम् ? एवंविधलोकान्तवर्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेष धर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽग्रभागवर्त्य लोकाकाशप्रदेशः स्पृष्टो वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्याग्रतोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स त्रिभिर्धर्मास्ति कायप्रदेशैः रपृष्टः, स चैयम् F यस्त्वेवं # लोकान्ते कोणगतो भगवई वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? छह से। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । इसी प्रकार अद्धासमय की भी वक्तव्यता । For Private & Personal Use Only ६४. भंते! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट - पद में सात से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? सात से। व्योमप्रदेशोऽसावेकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्तिना अधोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिग्द्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः । यश्चाध उपरि च तथा दिग् द्वये तत्रैव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पंचभिः । यः पुनरध उपरि च तथा दिक्त्रये तत्रैव च प्रवर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स षड्भिः । यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव च वर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभिर्धर्म्मास्तिकायप्रदेशः स्पृष्टो भवतीति । www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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