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श. १३ : उ. ४ : सू. ६२,६३
जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से। पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट
भगवई
१३५ केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? अणतेहिं।
अनन्तैः। केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं पट्टे ? । कियद्भिः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः
स्पृष्टः? अणंतेहि।
अनन्तैः। केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ? कियद्भिः अद्धासमयैः स्पृष्टः? । सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुढे नियम स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः, यदि अणंतेहिं॥
स्पृष्टः नियमम् अनन्तैः।
अनन्त से। कितने अद्धा-समय से स्पृष्ट है? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से।
६२. एगे भंते! अधम्मत्थिकायपदेसे एकः भदन्त! अधर्मास्तिकायप्रदेशः ६२. भंते! अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश
केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पट्टे? कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? . धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है? गोयमा! जहण्णपदे चउहि, उक्कोस- गौतम! जघन्यपदे चतुर्भिः, उत्कर्षपदे गौतम! जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट पद पदे सत्तहिं। सप्तभिः।
में सात से। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट
जहण्णपदे तिहिं, उक्कोसपदे छहि।
जघन्यपदे त्रिभिः, उत्कर्षपदे षभिः।।
जघन्य-पद में तीन से, उत्कृष्ट-पद में छह से। शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है।
सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स॥
शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य।
भाष्य
१. सूत्र ६१-६२
जघन्यतः तीन प्रदेशों की स्पर्शना-यह स्थिति लोकान्त के कोने में होती है। धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ऊर्ध्ववर्ती एक प्रदेश तथा पार्श्ववर्ती दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की जघन्यतः तीन प्रदेशों से स्पर्शना होती है। द्रष्टव्य स्थापना
काय के प्रदेशों से स्पर्शना होती है। छह दिशाओं के छह तथा एक उस प्रदेश के स्थान में स्थित।
लोकान्त में भी अलोकाकाश के प्रदेश विद्यमान हैं इसलिए धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश आकाश के सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है।
धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के पार्यों में तथा तीन, चार, पांच अथवा छह दिशाओं में अनंत जीवों के अनंत प्रदेश विद्यमान हैं। इसलिए जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेशों से स्पृष्ट होता है।
इसी प्रकार वह पुदगलास्तिकाय के भी अनंत प्रदेशों से स्पृष्ट होता है।
__ अद्धासमय समयक्षेत्र में ही होते हैं इसलिए धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश उनसे क्वचित् स्पृष्ट होता है, क्वचित् नहीं होता। यदि होता है तो वह अनंत अद्धासमयों से स्पृष्ट होता है।
अधर्मास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्शना धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है।
उत्कृष्टतः धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की छह प्रदेशों से स्पर्शना होती है। विवक्षित एक प्रदेश एक ऊर्ध्ववर्ती, एक अधोवर्ती, चार-चार दिशाओं से स्पृष्ट होते हैं। द्रष्टव्य स्थापना- ...
धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश जघन्यतः अधर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। विवक्षित प्रदेश से एक ऊर्ध्ववर्ती, दो पार्श्ववर्ती, एक उस प्रदेश के स्थान में स्थित।
उत्कृष्टतः धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की सात अधर्मास्ति
६३. एगे भंते! आगासत्थिकायपदेसे
केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ?
एकः भदन्त! आकाशास्तिकायप्रदेशः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः?
६३. भंते ! आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट
गोयमा ! सिय पुढे सिय नो पुढे। जइ गौतम ! स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः, पुढे जहण्णपदे एक्केण वा दोहिं वा तीहिं यदि स्पृष्टः जघन्यपदे एकेन वा द्वाभ्यां वा, उक्कोसपदे सत्तहि। एवं वा त्रिभिः वा, उत्कर्षपदे सप्तभिः। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि।
अधर्मास्तिकायप्रदेशैः अपि। १. भ. वृ. १३/६१,६२-सप्तमस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्य एवेति।
गौतम! स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो जघन्य-पद में एक, दो अथवा तीन से, उत्कृष्ट-पद में सात से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की
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