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________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ६१ संख्या पर विचार किया है। उनके अनुसार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय तीनों एक द्रव्य हैं, एक व्यक्तिक हैं। जीव और पुद्गल अनंत द्रव्य हैं, अनंत व्यक्तिक हैं। ' धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये तीनों निष्क्रिय हैं, गति शून्य है।' गति का माध्यम वही हो सकता है, जो स्वयं गति एवं स्थिति शून्य हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय गति शून्य हैं इसलिए वे गति के माध्यम हैं। आकाशास्तिकाय सब द्रव्यों के लिए आधार भूत है और व्यापक है इसलिए उसमें गति संभव नहीं है। गति का अर्थ है एक देश से दूसरे देश में जाना-देशाद् देशान्तरप्राप्तिः गतिः । आकाशास्तिकाय व्यापक है इसलिए उसमें गति का सिद्धांत घटित नहीं होता। आकाश का लक्षण है अवगाह । अवगाहन के नियम विचित्र हैं। आकाश का एक प्रदेश एक परमाणु से भी भर जाता है, दो परमाणु भी उसमें समा जाते हैं, सौ परमाणु भी समा जाते हैं, सैकड़ों कोटि परमाणु भी उसमें समा जाते हैं और हजारों कोटि परमाणु भी उसमें समा जाते हैं। उत्कृष्टतः अनंत प्रदेशी स्कन्ध भी समा जाते हैं। वृत्तिकार ने इसका हेतु बतलाया है पुद्गल के परिणमन की विचित्रता । उन्होंने अपने वक्तव्य का समर्थन दो उदाहरणों के द्वारा किया है १. जैसे एक कक्ष के आकाश को एक दीप की रश्मियां भी भर देती हैं, सौ दीपकों का प्रकाश भी उसमें समा जाता है।" २. जैसे जड़ी बूटियों के प्रयोग से एक तोला पारद में सौ तोला सोना समा जाता है। पुनः जड़ी बूटियों के प्रयोग से एक तोला पारद से सौ तोला सोना पृथक् किया जा सकता है। धम्मत्थिकायादीणं परोप्परं फास-पदं ६१. एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? गोयमा ! जहण्णपदे तिहिं, उक्कोसपदे छीिं । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? जहण्णपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं । haतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? सत्तहिं । १. त. सू. ५/५ । २. त. सू. ५/६ । ३. भ. २५/१४७ - १४८ । १३४ ४. भ. वृ. सू. १३/५८-यथापवरकाकाशमेकप्रदीपप्रभापटलेनाऽपि पूर्यते । द्वितीयमपि तत्तत्र माति। यावच्छतमपि तेषां तत्र माति । Jain Education International ५. भ. वृ. सू. १३/५८ - तथौषधिविशेषापादितपरिणामादेकत्रपारदकर्षे सुवर्णकर्षशतं प्रविशति । पारदकर्षीभूतं च सदौषधिसामर्थ्यात् पुनः पारदस्य भगवई क्षेत्र की अपेक्षा द्रव्य अधिक सूक्ष्म होता है। इसलिए एक आकाश-प्रदेश में अनंतप्रदेशी स्कंध भी समा जाता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने काल, क्षेत्र, द्रव्य और भाव की सूक्ष्मता पर विचार किया है। उनके अनुसार काल सूक्ष्म होता है। काल से क्षेत्र अधिक सूक्ष्म, क्षेत्र से द्रव्य और अधिक सूक्ष्म होता है। पर्याय द्रव्य से भी अधिक सूक्ष्म होते हैं।' क्षेत्र से द्रव्य सूक्ष्म है, इस आधार पर एक आकाश प्रदेश में अनंत प्रदेशी स्कन्ध के समाने का सिद्धांत समझा जा सकता है। जीवास्तिकाय है इसलिए जीव ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति करता है। ज्ञान और दर्शन के अनंत पर्याय हैं। उन पर्यायों के आधार पर वह ज्ञेय को जानने के लिए प्रवृत्त होता है। पुद्गलास्तिकाय की सत्ता है इसीलिए जीव के शरीर और इन्द्रिय की रचना, योग की प्रवृत्ति तथा आनापान का ग्रहण होता है। दूसरे शतक में ग्रहण का अर्थ समुदित होना किया गया है। " पृथक् होना तथा समुदित होना-यह पुद्गल की विशेषता है। अन्य द्रव्य परस्पर संबंध स्थापित नहीं कर सकते। अन्य द्रव्यों में परस्पर संबंध और विसंबंध नहीं होता। एक: धर्मास्तिकायादीनां परस्परं स्पर्श-पदम भदन्त ! धर्मास्तिकायप्रदेश: कियद्भिःः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? गौतम ! जघन्यपदे त्रिभिः, उत्कर्षपदे षड्भिः । कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? जघन्यपदे चतुर्भिः, उत्कर्षपदे सप्तभिः । कियद्भिः आकाशास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? सप्तभिः । ग्रहण का वैकल्पिक अर्थ ग्राह्य भी किया जा सकता है। उत्तराध्ययन में ग्रहण शब्द का प्रयोग ग्राहक और ग्राह्य- इन दोनों अर्थों में किया गया है। चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति - इस पद में ग्रहण का प्रयोग ग्राह्य के अर्थ में किया गया है।" रूवस्स चक्खु गहणं वयंति - इस पद में ग्रहण का प्रयोग ग्राहक के अर्थ में किया गया है। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई २ / १२४-१३५, ७/२१२२१६, तथा १८ / १३४ - १४२ । कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात् पुद्गलपरिणामस्येति । ६. (क) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ६२१-६२३। (ख) नंदी १८/८ का टिप्पण | ७. भ. २ / १२६ । ८. उत्तर. ३२ / २२ 1 ६. उत्तर. ३२ / २३। धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर स्पर्श-पद ६१. भंते! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? गौतम ! जघन्य-पद में तीन से, उत्कृष्टपद में छह से स्पृष्ट है। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट-पद में सात से। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? सात से। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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