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भगवई
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श. १३ : उ. ४ : सू. ६०
अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं, अनन्तानां आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणाम, अणंताणं
सुयनाणपज्जवाणं, अनन्तानां श्रुतज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनन्तानां अवधिज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं, अनन्तानां मनःपर्यवज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अनन्तानां केवलज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं मइअण्णाणपज्जवाणं, अनन्तानां मतिअज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं सुयअण्णाणपज्जवाणं, अनन्तानां श्रुतअज्ञानपर्यवाणाम्, अणताणं विभंगनाणपज्जवाणं, अनन्तानां विभङ्गज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं चम्खुदंसणपज्जवाणं, अनन्तानां ___ चक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अणंताणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं, अनन्तानां अचक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अणंताणं ओहिदंसणपज्जवाणं, अनन्तानां अवधिदर्शनपर्यवाणाम, अणंताणं केवलदसणपज्जवाणं उवयोगं । अनन्तानां केवलदर्शनपर्यवाणाम, गच्छति।
उपयोगं गच्छति। उवयोगलक्खणे णं जीवे॥
उपयोगलक्षणः जीवः।
अनंत आभिनिबोधिकज्ञान पर्यव, अनंत श्रुतज्ञान पर्यव, अनंत अवधिज्ञान पर्यव, अनंत मनःपर्यवज्ञान पर्यव, अनंत केवलज्ञान पर्यव , अनंत मतिअज्ञान पर्यव, अनंत श्रुतअज्ञान पर्यव, अनंत विभंगज्ञान पर्यव, अनंत चक्षुदर्शन पर्यव, अनंत अचक्षुदर्शन पर्यव, अनंत अवधिदर्शन पर्यव और अनंत केवलदर्शन पर्यव के उपयोग को प्राप्त होता
उपयोग जीव का लक्षण है।
६०. पोग्गलत्थिकाए णं भंते! जीवाणं पुद्गलास्तिकाये भदन्त! जीवानां किं किं पवत्तति ?
प्रवर्तते? गोयमा! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं । गौतम! पुद्गलास्तिकाये जीवानाम् ओरालिय - बेउब्बिय . आहारातेया औदारिक - वैक्रिय - आहारक-तैजसकम्मा सोइंदिय-चक्विंदिय-घाणिदिय- कर्मक . श्रोत्रेन्द्रिय · चक्षुरिन्द्रियजिभिंदिय . फासिदिय - मणजोग- घ्राणेन्द्रिय - जिह्वेन्द्रिय - स्पर्शेन्द्रियवइजोग - कायजोग - आणापाणूणं च । मनोयोग - वागयोग - काययोग-आनागहणं पवत्तति।
पानानां च ग्रहणं प्रवर्तते। गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए॥ ग्रहणलक्षणः पुद्गलास्तिकायः।
६०. भंते ! पुद्गलास्तिकाय की सत्ता में जीवों
का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम ! पुद्गलास्तिकाय की सत्ता में जीव औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनयोग, वचनयोग, काययोग और आनापान के ग्रहण का प्रवर्तन करता है। ग्रहण पुद्गलास्तिकाय का लक्षण है।
भाष्य १. सूत्र ५५-६०
अधर्मास्तिकाय स्थिति का माध्यम है। प्रस्तुत आलापक में पंचास्तिकाय के सदभाव में होने वाली गतिशील द्रव्य दो हैं-जीव और पुद्गल। प्रस्तुत आलापक प्रवृत्तियों का संग्रह किया गया है।
में जीव की गति और स्थिति का उल्लेख किया गया है। स्थूल धर्मास्तिकाय का लक्षण गति है। विश्व में जितनी भी गति है, पुद्गल द्रव्य की गति पर-प्रेरित होती है किन्तु परमाणु तथा सूक्ष्म वह धर्मास्तिकाय के सद्भाव में होती है। वह गति का प्रवर्तक नहीं है परिणति वाले परमाणु-स्कंधों की गति स्वतः होती है। उनकी फिर भी उसका गति के साथ अविनाभाव संबंध है-धर्मास्तिकाय के गति और स्थिति के माध्यम भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होने पर गति होती है, उसके न होने पर गति नहीं होती। गति की बनते हैं। लोक और अलोक की सीमा भी इन्हीं के आधार पर शक्ति जीव और पुद्गल-इन दो द्रव्यों में है। इनके सिवाय कोई भी होती है। द्रव्य गतिशील नहीं है।
आकाश दो खण्डों में विभक्त हैजीव और पुद्गल में गति की शक्ति है फिर उन्हें किसी १. लोकाकाश माध्यम की आवश्यकता क्यों? यह प्रश्न सहज उपस्थित होता है। २. अलोकाकाश। व्याख्याकारों ने इसका एक दृष्टान्तात्मक उत्तर दिया है। मत्स्य में जिस आकाश खण्ड में गति और अगति के माध्यम द्रव्य हैं गति की शक्ति है फिर भी वह जल के माध्यम के बिना चल नहीं तथा गति करने वाले जीव और पुद्गल द्रव्य हैं, वह आकाश खण्ड सकता। यह दृष्टांत बहुत स्थूल है फिर भी इससे माध्यम की लोकाकाश है। जिस आकाश खण्ड में गति और अगति के माध्यम अनिवार्यता प्रदर्शित होती है। भौतिक माध्यम व्यापक नहीं हो द्रव्य नहीं हैं तथा गति करने वाले जीव और पुद्गल द्रव्य नहीं हैं, वह सकता इसलिए अभौतिक माध्यम की खोज जरूरी होती है। आकाश खण्ड अलोकाकाश है। धर्मास्तिकाय उस खोज का परिणाम हो सकता है।
उमास्वाति ने अस्तिकाय की द्रव्य-संख्या, गति और प्रदेश
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