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श. १२ : उ.७ : सू. १५३
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भगवई
स्थावर जीव निकायों का निर्देश है। इस पाठ की रचना सूक्ष्म स्थावर जीवों की अपेक्षा से की गई है। बादर स्थावर जीव निकाय के प्रसंग में यह नियम सर्वत्र लागू नहीं है।
उनके नियम पृथक्-पृथक् हैं।' शब्द-विमर्श
नरगत्ताए-नरकावास के जीव के रूप में।
घायगत्ताए-मारक के रूप में वहगत्ताए-वधक के रूप में मयगत्ताए-मृतक के रूप में भाइल्लगत्ताए-भागीदार के रूप में वेसत्ताए-वैश्य के रूप में वृत्तिकार के इसका अर्थ द्वेश्य के रूप में किया है।
१५३. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव
विहरइ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति ।
१५३. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
है। ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे।
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