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भगवई
गोयम ! असई अदुवा
हंता अनंतखुत्तो ॥
१५० सव्वजीवा दि णं भंते! इमस्स जीवस्स रायत्ताए जुवरायत्ताए तलवरत्ताए माडंबियत्ताए कोडुंबियत्ताए इब्भत्ताए सेट्ठित्ताए सेणावइत्ताए सत्थवाहत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा ! अणंतखुत्तो ॥
असई अदुवा
१५१. अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए, पेसत्ताए, भयगत्ताए, भाइल्लत्ताए, भोगपुरिसत्ताए, सीसत्ताए, वेसत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो ॥
१५२. सव्वजीवा विणं भंते ! इमस्स जीवस्स दासत्ताए, पेसत्ताए, भयगत्ताए, भाइल्लत्ताए, भोगपुरिसत्ताए, सीसत्ताए, बेसत्ताए उववन्नपुब्बे ?
असई अदुवा
हंता गोयमा ! अणंतखुत्तो ॥
हन्त गौतम ! अनन्तकृत्वः ।
७५
असकृत् अथवा
सर्वे जीवाः अपि भदन्त ! अस्य जीवस्य राजत्वेन, युवराजत्वेन, 'तलवर' त्वेन माडम्बिकत्वेन, कौटुम्बिकत्वेन, इभ्यत्वेन श्रेष्ठित्वेन, सेनापतित्वेन सार्थवाहत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः ।
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अयं भदन्त ! जीवः सर्वजीवानां दासत्वेन, प्रेष्यत्वेन भृतकत्वेन, भागिकत्वेन, भोगपुरुषकत्वेन, शिष्यत्वेन वैश्यत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः ।
सर्वे जीवाः अपि भदन्त ! अस्य जीवस्य दासत्वेन, प्रेष्यत्वेन भृतकत्वेन, भागिकत्वेन, भोगपुरुषत्वेन, शिष्यत्वेन वैष्यत्वेन उपपन्नपूर्वः ?
हन्त गौतम ! असकृत् अनन्तकृत्वः ।
१. सूत्र १३३-१५२
जीव अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहे हैं। यह सामान्य निर्देश हैं, विधि सूत्र है। इसका निषेध सूत्र है - असकृद् भ्रमण। कुछ जीव ऐसे हैं, जो नाना रूपों में अनेक बार भ्रमण करते हैं। उसके बाद वे मुक्त हो जाते हैं। विवरण के लिए देखें भगवई २ / ७६ का भाष्य ।
प्रस्तुत प्रकरण में संसरण में प्राप्त होने वाले नाना रूपों का नामोल्लेख किया गया है। 'असई' अथवा 'अणंत खुत्तो'इसका उल्लेख भगवई ६/१०५, ११६ तथा भगवई ११ / ४०,५५ में हुआ है।
भाष्य
असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु - असंख्यात के साथ फिर शत- सहस्र का प्रयोग क्यों ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। वृत्तिकार ने इसका समाधान दिया है- पृथ्वीकायिक आवासों की
१. भ. वृ. १२/१३३-१५२ - इहासंख्यातेषु पृथिवीकायिकावासेषु एतावतैव सिद्धेर्यच्छत-सहस्रग्रहणं तत्तेषामतिबहुत्वख्यापनार्थम्।
२. वही, १२/१३३ - १५२ - अनुत्तरविमानेष्वनन्तकृत्वो देवा नोत्पद्यन्ते देवयश्च सर्वथैवेति ।
अथवा
श. १२ : उ. ७ : सू. १५०-१५२ हां, गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार।
१५०. भंते! क्या सब जीव भी इस जीव के
राजा, युवराज, तलवर, मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह के रूप में उपपन्न पूर्व हैं ?
हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार।
४. वही, २/१-१५।
१५१. भंते! क्या यह जीव सब जीवों के दास, प्रेष्य, भृतक, भागीदार, भोगपुरुष, शिष्य और वैश्य के रूप में उपपन्न पूर्व है ?
हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार।
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१५२. भंते! क्या सब जीव भी इस जीव के दास, प्रेष्य, भृतक, भागीदार, भोगपुरुष, शिष्य और वैश्य के रूप में उपपन्न पूर्व हैं ?
बहुलता बतलाने के लिए शतसहस्र का प्रयोग किया गया है। '
देवियां सौधर्म और ईशानकल्प में होती हैं। उनसे आगे किसी भी स्वर्ग में देवियां नहीं होती इसलिए सनत्कुमार आदि कल्पों में देवित्ताए (सूत्र १४२ ) इस पाठ का ग्रहण नहीं है।
हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार।
अनुत्तरविमान में कोई भी मनुष्य देव रूप में अनंत बार उपपन्न नहीं होता। अनेक बार का भी नियम है। प्रथम चार अनुत्तरविमानों में एक मनुष्य दो बार से अधिक तथा सर्वार्थसिद्ध में एक बार से अधिक उपपन्न नहीं होता ।
अधोलोकवर्ती नरकों तथा भवनपति देवों के आवासों, ऊर्ध्वलोकवर्ती वैमानिक देवों के आवासों में बादर अग्निकायिक जीव नहीं होते इसलिए 'पढवीकायियत्ताए जाव वणस्सइ कायियत्ताए' इस पाठ में तेउकायियत्ताए पाठ का ग्रहण नहीं है । "
• पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव- इस पाठ में पांचों
३ (क) भ. २४ / ३१०, ३५६ ।
(ख) पण्ण. १५ / ११३।
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