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मूल
देवाणं बिसरीरेसु उववाय-पदं १५४. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी - देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा ?
हंता उववज्जेज्जा ॥
१५५. से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइयसक्कारिय- सम्माणिए दिव्वे सचे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे यावि भवेज्जा ? हंता भवेज्जा ॥
१५६. से णं भंते ! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? हंता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ॥
१५७, देवे णं भंते! महिड्डीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा ?
हंता उववज्जेज्जा । एवं चैव जहा नागाणं ॥
१५८. देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु रूक्खेसु उववज्जेज्जा ?
हंता उववज्जेज्जा । एवं चेव, नवरंइमं नाणत्तं जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भवेज्जा ?
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अमो उद्देसो : आठवां उद्देशक
संस्कृत छाया
देवानां द्विशरीरेषु उपपात-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावत् एवमवादीत् - देवः भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्विशरीरेषु नागेषु उपपद्येत ?
हन्त उपपद्येत ।
सः तत्र अर्चित- वन्दित - पूजित - सत्कृत- सम्मानितः दिव्यः सत्य: सत्यावपातः सन्निहितप्रातिहार्य : चापि भवेत् ? हन्त भवेत्।
सः भदन्त! तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य सिध्येत् यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्यात् ?
हन्त सिध्येत् यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्यात् ।
देव: भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्विशरीरेषु मणिषु उपपद्येत ?
हन्त उपपद्येत । एवं चैव यथा नागानाम् ।
देव: भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्विशरीरेषु रूक्षेषु उपपद्येत?
हन्त उपपद्येत । एवं चैव, नवरम्-इदं नानात्वं यावत् सन्निहितप्रातिहार्यः 'लाउल्लोइयमहिए' चापि भवेत् ?
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हिन्दी अनुवाद
देवों का द्विशरीर - उपपात पद १५४. उस काल और उस समय में यावत् इस प्रकार बोले- भंते ! क्या महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर द्विशरीर वाले नागों में उपपन्न होता है ? हां, उपपन्न होता है।
१५५. क्या वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य (प्रधान), सत्य, सत्यावपात और सन्निहित प्रातिहार्य होता है ? हां, होता है।
१५६. भंते! क्या वह वहां से अनन्तर निकलकर सिद्ध यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ?
हां, सिद्ध यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।
१५७. भंते! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव उस देवलोक से अनन्तर च्यवन कर द्विशरीर वाले मणियों में उपपन्न होता है ? उपपन्न होता है। इस प्रकार नाग की भांति वक्तव्यता।
१५८. भंते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर द्विशरीरी वाले वृक्षों में उपपन्न होता है ?
हां, उपपन्न होता है। इसी प्रकार पूर्ववत् वक्तव्यता, इतना विशेष है- क्या इसमें नानात्व यावत् सन्निहित प्रातिहार्य और लाउल्लोइयमहित - वृक्ष का भूमिभाग गोबर
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