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श. १२: उ. सू. १५४ - १५६
हंता भवेज्जा। सेसं तं चैव जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ॥
पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं उवववाय-पदं १५६, अह भंते! गोनंगूलवसभे, कुक्कुडवसभे, मंडुक्कवसभे-एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा
हन्त भवेत् । शेषं तत् चैव यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्यात् ।
१. सूत्र १५४-१५८
अभयदेवसूरि के अनुसार एक भव मोक्षगामी के लिए द्विशरीर शब्द का प्रयोग किया गया है। जो नाग नाग-शरीर को छोड़कर अगले जन्म में मनुष्य शरीर प्राप्त कर मुक्त होता है, वह द्विशरीरी है।'
स्थानांग में द्विशरीरी का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है। चतुर्थ स्थान में बतलाया गया है- ऊर्ध्वलोक, तिर्यक् लोक और अधोलोक - तीनों में पृथ्वी, जल, वनस्पति और उदार त्रस प्राणी (पंचेन्द्रिय जीव) द्विशरीर वाले होते हैं। वृत्ति में द्विशरीरी का वही अर्थ है - दूसरे जन्म में मोक्ष जाने वाला । '
दूसरे स्थान में सब जीवों को दो शरीर वाला - आभ्यन्तर और बाह्य शरीर वाला बतलाया गया है। "
मरुत देवों का पाठ विचित्र है। उन्हें तथा अन्य देवों को एक शरीरी तथा द्विशरीरी दोनों बतलाया गया है। वृत्तिकार के अनुसार विग्रह गति में कार्मण शरीर की अपेक्षा से एक शरीर है और जन्म के पश्चात् वैक्रिय शरीर की उपलब्धि हो जाती है, इस अपेक्षा से वे द्विशरीरी होते हैं। "
चौदहवें शतक में शाल वृक्ष, शालयष्टिका तथा उदुम्बरयष्टिका को मोक्षगामी बतलाया गया है। शालवृक्ष फिर शालवृक्ष बनेगा, वह अर्चित और वंदित होगा। अर्चित और वंदित शालवृक्ष अनंतर भव में मनुष्य जन्म लेकर मुक्त होगा। इस सूत्र के आधार पर द्विशरीरी की वृत्तिकार द्वारा की हुई व्याख्या साधार बन जाती है।
१. भ. वृ. १२/१५४-बिसरीरेसु त्ति द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीरास्तेषु, ये हि नाग शरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य सेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति ।
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२. ठाणं ४ / ४८३ - ४८५ ।
३. स्था. वृ. पृ. २३६ - द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एकं पृथिवीकायिकादि शरीरमेव द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं ततस्तृतीयं केषाञ्चिन् न भवत्यनन्तरमेव सिद्धिगमनात् ।
४. ( क ) ठाणं २ / १५३-१६०
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भाष्य
(ख) स्था. वृ. प. ५२ - अभ्यन्तः - मध्ये भवमाभ्यन्तरं, आभ्यन्तरत्वं च तस्य जीवप्रदेशैः सह क्षीरनीरन्यायेन लोलीभवनात् भवान्तरगतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तः प्रविष्ट पुरुषवदनतिशयिनामप्रत्यक्षत्वाच्चेति ।
५. ठाणं २ / २०६ - २११ ।
६. स्था. वृ. प. ५५ मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः, ते चैकशरीरिणो
पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् उपपात-पदम् अथ भदन्त! गोलाङ्गूलवृषभ:, कुक्कुटवृषभः, मण्डूकवृषभः- एते निःशीलाः निर्व्रताः निर्गुणाः निर्मेरा, निष्प्रत्या
अर्चित, पूजित, वंदित, सत्कारित और सम्मानित - इन पांच विशेषणों का संबंध अर्चा से है। दिव्य विशेषण का संबंध दिव्य शक्ति से है। अष्टांग संग्रह में सर्प की दो गतियां बतलाई गई हैं-दिव्य और भौम | दिव्य विशिष्ट शक्ति संपन्न होता है।" अनुग्रह और निग्रह करने की शक्ति तेजोलब्धि से प्राप्त होती है। दिव्य नागों का तैजस शरीर प्रबल होता है। इस अपेक्षा से भी उन्हें द्विशरीरी कहा जा सकता है-एक स्थूल शरीर और दूसरा तैजस शरीर, जो दिव्य शक्ति से सम्पन्न है।
भगवई
आदि से लिपा हुआ और भींत खड़िया मिट्टी से पुती हुई होती है ?
हां, होती है। शेष वर्णन पूर्ववत् यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।
सत्य, सत्यावपात, सन्निहिय पाडिहेरे-ये तीनों विशेषण उनकी दिव्य शरीर की शक्ति से संबद्ध हैं। वे दिव्य सर्प स्वप्न में 'दरसाव' देते हैं, वह यथार्थ होता है। उनकी सेवा सफल होती है।
प्रतिहार-द्वारपाल की भांति सदा सन्निहित वृत्ति वाला देव भी प्रतिहार कहलाता है। उसके द्वारा दिया जाने वाला सान्निध्य प्रातिहार्य है।
सन्निहित प्रातिहार्य - देव- सान्निध्य, यथाभिलषित अर्थ की प्राप्ति का हेतु । अभयदेव सूरि के अनुसार नाग, मणि तथा वृक्ष के पूर्वजन्म के मित्रदेव उनकी साधना करने वाले को इष्ट फल की प्राप्ति कराते हैं।
लाडल्लोइयमहिए - उपल आदि से भूमि का सम्मार्जन करना, खड़िया मिट्टी आदि से भींतों को धुलकाना । इन दोनों कर्मों से महत - पूजित यह बद्धपीठ वृक्ष का विशेषण है । "
पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक उपपात पद १५६. भंते! क्या वानरों में प्रधान, कुक्कुट में प्रधान, मेंढक में प्रधान-ये शील रहित, व्रत रहित, गुण रहित मर्यादा रहित,
विग्रहे कार्मणशरीरत्वात्, तदनन्तरं वैक्रियभावाद् द्विशरीरिणः । ७. भ. १०/१०१-१०६ ।
८. अष्टांग संग्रह ४१ / २-४
दिव्यभौमविभागेन, द्विविधाः पन्नगाः स्मृताः । वासुकिस्तक्षकोनन्तः, सगरः सागरालयः ॥ तथा नन्दोपनन्दाद्याः समिद्धाग्निसमप्रभाः । दिव्या गर्जन्ति वर्षन्ति द्योतन्ते द्योतयन्ति ते ॥ धारयन्ति जगत् कृत्स्नं कुर्युः क्रुद्धाश्च भस्मसात्। दृङ्निश्वासैर्नमस्तेभ्यो, नतेष्वस्ति चिकित्सितम् ॥
६. भ. वृ. १२/१५७ - १५८ - सन्निहितं - अदूरवर्त्ति प्रातिहार्य - पूर्वसंगतिकादि
देवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा ।
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१०. वही, १२ / १५७, १५८ ।
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