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________________ भगवई ७६ निष्पचक्खाणपोसहोववासा काल-मासे ख्यान-पौषधोपवासाः कालमासे कालं कालं किच्चा इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि उत्कर्ष सागरोपमस्थितिके नरके नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? नैरयिकत्वेन उपपद्येत? श. १२ : उ. ८ : सू. १६०-१६२ प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित, काल मास में काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्टतः सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते समणे भगवं महावीरे वागरेइउववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया। श्रमणः भगवान् महावीरः व्याकरोतिउपपद्यमानः उपपन्नः इति वक्तव्यं स्यात्। श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैं-उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य १६०. अह भंते! सीहे, वग्घे, वगे, अथ भदन्त! सिंहः, व्याघ्रः, वृकः, १६०. भंते ! क्या सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, चित्तोदार दीविए, अच्छे, तरच्छे, परस्सरे-एए णं द्वीपिकः, ऋक्षः, तरक्षः, पराशरः-एते तेंदुआ, रीछ, लकड़बग्घा और पराशर निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निःशीलाः निव्रताः निर्गुणाः निर्मेराः (वाम्बेट) ये शील रहित, व्रत रहित, गुण निष्पचक्खाणपोसहोववासा कालमासे निष्प्रत्याख्यान-पौषधोपवासाः, काल- रहित, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान और कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए मासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायाम् पौषधोपवास से रहित कालमास में काल उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि उत्कर्ष सागरोपमस्थितिके नरके करके इस रत्न प्रभा पृथ्वी में उत्कृष्टतः नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? नैरयिकत्वेन उपपद्येत? सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते हैं ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ- श्रमणः भगवान् महावीरः व्याकरोति- श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैंउववज्जमाणे उववन्ने ति वत्तव्वं उपपद्यमानः उपपन्नः इति वक्तव्यं उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य है। सिया॥ स्यात्। १६१. अह भंते ! ढंके, कंके, विलए, अथ भदन्त! 'ढंके', कङ्कः, विलकः १६१. भंते ! ढंक (द्रोण काक) कंक (सफेद मदए, सिखी-एए णं निस्सीला निब्बया मद्गुकः, शिखी-एते निःशीलाः निर्वताः चील), विलक (पीलक), मद्गुक (जल निग्गुणा निम्मेरा निष्पचक्खाण- निर्गुणाः निर्मेराः निष्प्रत्याख्यान- काक) और मोर-ये शील रहित, व्रत रहित, पोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा पौषधोपवासाः कालमासे कालं कृत्वा गुणरहित, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान और इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं अस्यां रत्नप्रभायाम् पृथिव्याम् उत्कर्ष पौषधोपावास से रहित कालमास में काल सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए। सागरोपमस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट उववज्जेज्जा? उपपद्येत? सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते हैं ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ- श्रमणः भगवान् महावीरः व्याकरोति- श्रमण भगवान महावीर व्याकरण करते उववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया॥ उपपद्यमानः उपपन्नः इति वक्तव्यं हैं-उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य स्यात्। भाष्य १. सूत्र १५-१६१ प्रस्तुत प्रकरण में क्रियाकाल और निष्ठाकाल के अभेद का सिद्धांत प्रतिपादित है। नरक में नारक ही उपपन्न होता है, अनारक नहीं। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवई १/११-१२ तथा, १/ ३७०-३७१। शाब्दिक तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई ७/१२१। १६२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १६२. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है, ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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