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भगवई
१. सूत्र ४१-४२
कर्म का कर्ता कौन? इस प्रश्न पर अनेक विचारकों ने चिन्तन किया है। सांख्य दर्शन के अनुसार कर्म का कर्ता प्रकृति है। वही बद्ध और मुक्त होती है। पुरुष बद्ध और मुक्त नहीं होता।'
प्रस्तुत सूत्र में सांख्य दर्शन के मत को अस्वीकार कर जैन दर्शन के अभिमत की स्थापना की है-कर्म चैतन्य कृत है।
प्रस्तुत प्रकरण में चेय का प्रयोग चैतन्य के अर्थ में हुआ है। समयसार में चेदा का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ आत्मा किया है - चेदा - आत्मा । अमृतचंद्र ने चेदा का अर्थ चेतयिता- आत्मा किया है। कर्तृत्व के प्रश्न पर आचार्य कुन्दकुन्द ने दोनों नयों-निश्चय नय और व्यवहार नय से समीक्षा की है। निश्चय नय के आधार पर उनकी वक्तव्यता यह है-आत्मा अपने भावों की कर्ता है, पुद्गल की कर्ता नहीं है। कर्म पौद्गलिक हैं इसलिए आत्मा कर्म की कर्ता नहीं है। '
व्यवहार नय के अनुसार आत्मा कर्म-पुद्गल की कर्त्ता है। प्रस्तुत प्रकरण में नय की विवक्षा किए बिना सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कर्म चैतन्य द्वारा कृत है, इसके समर्थन
४३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरणइ ॥
१. समयसार गाथा ३३४-३३६ ।
३. समयसार गाथा ६० :
बहारस्स दु आदा पुद्गलकम्मं करेदि णेयविहं ।
तं चैव य वेदयदे, पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥
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भाष्य
में कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं
१. जीवों के पुद्गल आहार रूप में, शरीर के रूप में, कलेवर (शरीर के अंगों ) के रूप में उपचित होते हैं। जैसे-आहार, शरीर और कलेवर चैतन्य द्वारा कृत हैं, वैसे ही कर्म चैतन्य द्वारा कृत हैं। जैसे आहार शरीर के रूप में परिणत होता है वैसे ही कर्म प्रायोग्य पुद्गल कर्म के रूप में परिणत होते हैं। जैसे आहार चैतन्य कृत है, वैसे ही कर्म चैतन्य कृत हैं।
२. दूषित स्थान, शय्या और निषद्या में असातवेदनीय के कर्म पुद्गल अशुभ रूप में परिणत होते हैं। दुःख का संवेदन जीव को होता है। इससे सिद्ध होता है कि कर्म चैतन्य कृत हैं। यदि कर्म पुद्गल चैतन्य के द्वारा अकृत हों तो वे जीव को दुःखी नहीं बना सकते।
३. आतंक, संकल्प और मरणान्त कष्ट जीव के वध का हेतु बनता है। आतंक, संकल्प और मरणान्त कष्ट के जनक असातवेदनीय कर्म के पुद्गल उस रूप में परिणत होते हैं और जीव उनका संवेदन करता है। इससे भी कर्म का चैतन्य कर्तृत्व सिद्ध होता है।"
वृत्तिकार ने चय की वैकल्पिक व्याख्या संचय के रूप में की है।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावत् विहरति ।
श. १६ : उ. २ : सू. ४३
२. समयसार गाथा ८६ :
४३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ऐसा कह कर यावत् विहरण करने लगे।
णिच्छयणयस्स एवं आदा, अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चैव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥
४. भ. वृ. १६/४१-४२
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