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________________ श. १६ : उ. २ : सू. ४१, ४२ २. अणिज्जूहित्ता का अर्थ-दूर किए बिना तथा णिज्जूहित्ता का अर्थ 'दूर कर' होता है। पाइय शब्द महण्णव में निर्यूह - निर् + यूह धातु का अर्थ परित्याग करना, रचना, निर्माण करना, बाहर निकालना किया है। निर्यूढ का अर्थ निस्सारित, निष्कासित, अमनोज्ञ, उद्धृत, ग्रंथांतर से अवतारित और रहित किया है। ' शाब्दिक मीमांसा करने पर चूर्णिकार और वृत्तिकार द्वारा किया हुआ अर्थ अगम्य बन रहा है। 'सूक्ष्मकाय का निर्यूहण किए बिना इसका अर्थ है मुंह पर चेय- अचेयकड कम्म- पदं ४१. जीवाणं भंते! किं चेयकडा कम्मा कज्जति ? अचेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! कज्जंति, कज्जति ॥ जीवाणं चेयकडा कम्मा नो अचेयकडा कम्मा ४२. से केणद्वेणं भंते! एवं वुचइ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! दुट्ठाणेसु, दुसेज्जासु, दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! आयंके से बहाए होति, संकप्पे से बहाए होति, मरणंते से बहाए होति तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचड़ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति । एवं नेरइयाण वि । एवं जाव वेमाणियाणं । ३५६ Jain Education International भगवई हाथ, वस्त्र आदि दिए बिना शक्र बोलता है, वह उसकी सावद्य भाषा है । जब देवेन्द्र शक्र सूक्ष्मकाय का निर्यूहण कर अर्थात् मुंह पर हाथ, वस्त्र आदि देकर बोलता है, तब वह अनवद्य भाषा है। यह व्याख्या शब्द मीमांसा के आधार पर विचारणीय है। वृत्तिकार ने णिज्जूहित्ता का अर्थ नहीं किया है। केवल अणिज्जूहित्ता का अर्थ किया है। अणिज्जूहित्ता णिज्जूहित्ता का विपर्यय है। हमें सर्वप्रथम णिज्जूहित्ता के अर्थ पर विचार करना चाहिए। भवसिद्धिक आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई ३ / ७२-७३ का भाष्य । चेतस्-अचेतः कृत-कर्म-पदम् जीवानां भदन्त ! किं चेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते ? अचेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते ? १. (क) शब्द कल्पद्रुम में निर्यूह शब्द के अर्थ इस प्रकार हैं- शेखर, आपीड़म्, द्वारम्, निर्यासः, क्वाथरस: नागदंतः । (ख) आप्टे संस्कृत हिन्दी कोश में निर्यूह शब्द की व्युत्पत्ति 'उह' शब्द के गौतम ! जीवानां चेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते, नो अचेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेजीवानां चेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते, अतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते ? गौतम! जीवानाम् आहारोपचिताः पुद्गलाः, 'बोंदि'चिताः पुद्गलाः, कलेवरचिताः पुद्गलाः तथा तथा ते पुद्गलाः परिणमन्ति न सन्ति अचेतस्कृतानि कर्माणि श्रमणायुष्मन् ! दुःस्थानेषु, दुःशय्यासु, दुर्निषीधिकासु तथा तथा ते पुद्गलाः परिणमन्ति, न सन्ति अचेतः कृतानि कर्माणि श्रमणायुष्मन् ! आतङ्कः तस्य वधाय भवति, संकल्पः तस्य वधाय भवति, मरणान्तः तस्य वधाय भवति, तथा तथा ते पुद्गलाः परिणमन्ति, न सन्ति अचेतः कृतानि कर्माणि श्रमणायुष्मन् ! तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-जीवानां चेतःकृतानि कर्माणि क्रियन्ते, नो अचेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते । एवं नैरयिकाणाम् अपि । एवं यावत् वैमानिकानाम् । चैतन्य - अचैतन्य कृत कर्म पद ४१. भंते! जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं? अचैतन्य के द्वारा कृत हैं? For Private & Personal Use Only गौतम! जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। ४२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं? गौतम! जैसे पुद्गल जीवों के आहार के रूप में उपचित हैं, शरीर के रूप में उपचित हैं, कलेवर के रूप में उपचित हैं, वे उस उस रूप में परिणत होते हैं। आयुष्मन् श्रमण ! वैसे ही कर्म - पुद्गल कर्म रूप में परिणत होते हैं। इसलिए कर्म अचेतन के द्वारा कृत नहीं हैं। जैसे पुद्गल दुःस्थान, दुःशय्या और दुर्निषद्या में उस उस रूप में (अशुभ रूप में) परिणत होते हैं, आयुष्मन् श्रमण ! वैसे ही कर्म पुद्गल भी कर्म रूप में परिणत होते हैं, इसलिए कर्म अचैतन्य कृत नहीं हैं। जैसे आतंक वध के लिए होता है। संकल्प वध के लिए होता है। मरणांत वध के लिए होता है। आयुष्मन् श्रमण ! वैसे ही कर्म पुद्गल कर्म रूप में परिणत होते हैं इसलिए कर्म अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। इसी प्रकार नैरयिकों की वक्तव्यता । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता । आधार पर की गई है - निर्+उह+क (पृषोदरादित्वात् साधुः) कंगूरा, मीनार, बुर्ज या कलश, शिरोभूषण, चूडामणि, मुकुट, नागदंत, दीवार में लगी खूंटी, दरवाजा, सत्त्व, काढा । www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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