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भगवई
भासं भासति ताहे णं सक्के देविंदे देवराया अणवज्जं भासं भासति । से तेण ेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सक्के देविंदे देवराया सावज्जं पि भासं भासति, अणवज्जं पि भासं भासति ॥
४०. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए ? अभवसिद्धीए ? सम्मदिट्ठीए ? मिच्छदिट्ठीए ? परित्तसंसारिए ? अणंतसंसारिए ? सुलभबोहिए ? दुल्लभबोहिए ? आराहए ? विराहए ? चरिमे ? अचरिमे ?
गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया भवसिद्धीए, नो अभवसिद्धिए । सम्मदिट्ठीए, नो मिच्छदिट्ठीए । परित्तसंसारिए, नो अणंतसंसारिए । सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचरिमे । एवं जहा मोउद्देसए सणकुमारे जाव नो अचरिमे ॥
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शक्रः देवेन्द्रः देवराजः अनवद्यां भाषां भाषते । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - शक्रः देवेन्द्रः देवराजः सावद्याम् अपि भाषां भाषते, अनवद्याम् अपि भाषां भाषते ।
शक्रः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजः किं भवसिद्धिकः ? अभवसिद्धिकः ? सम्यग् दृष्टिकः ? मिथ्यादृष्टिकः ? परीतसंसारिकः ? अनन्तसंसारिकः ? सुलभबोधिकः ? दुर्लभबोधिकः ? आराधकः ? विराधकः ? चरमः ? अचरमः ? गौतम ! शक्र: देवेन्द्रः देवराजः भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिकः । सम्यग्दृष्टिक: नो मिथ्यादृष्टिकः । परीतसंसारिकः, नो अपरीतसंसारिकः । सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः । आराधकः, नो विराधकः । चरमः, नो अचरमः । एवं यथा मोकोद्देशके सनत्कुमारः यावत् नो अचरमः ।
१. सूत्र ३५-४०
देवेन्द्र शक्र ने अवग्रह के बारे में जो कहा, उसके सत्यापन के लिए गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा और भगवान् ने गौतम के वक्तव्य का अनुमोदन किया।
इसके पश्चात् गौतम ने इन्द्र के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। उनका उत्तर मूलपाठ में स्पष्ट है। सावद्य और अनवद्य भाषा के विषय में विमर्श आवश्यक है।
सावद्य और निरवद्य के सूत्र का पारंपरिक अर्थ इस प्रकार हैवृत्तिकार ने सावद्य का अर्थ गर्हित कर्म किया है।' चूर्णिकार ने सूक्ष्मकाय का अर्थ हस्त आदि वस्तु किया है।' वृत्तिकार ने अपनी वृत्ति में इसका उल्लेख किया है।' वृत्ति में मतांतर का उल्लेख है। उसके अनुसार सुहुमकाय का अर्थ है वस्त्र ।
१. भ. वृ. १६ / ३६, सावज्जं ति सहावद्येन-गर्हितकर्म्मणेति सायद्या तां । २. भ. चूर्णि पृष्ठ ४० सूक्ष्मकायमपोह्य हस्तादि मुखे दत्त्वा जीवसंरक्षणार्थं सुहुम भा साधूणं मुक्कं ।
३. भ. वृ. १६ / ३६ सूक्ष्मकायं हस्तादिकं वस्त्विति वृद्धाः ।
४. भ. वृ. १६/३९ अन्ये त्वाहुः - सुहुमकायं ति वस्त्रम् ।
५. भ. वृ. १६/३१ अणिज्जुहित्तत्ति 'अपोह्य' अदत्त्वा ।
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६. भ. वृ. १६ / ३६ हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति, अन्या तु सावद्येति ।
७. भ. जो. ढाल ३५० गाथा ६६-७० तथा वार्तिक
भाष्य
श. १६ : उ. २ : सू. ४०
शक्र निरवद्य भाषा बोलता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- देवराज देवेन्द्र शक्र सावद्य भाषा भी बोलता है, अनवद्य भाषा भी बोलता है।
४०. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र क्या भवसिद्धिक है ? अभवसिद्धिक है? सम्यक दृष्टि है? मिथ्या दृष्टि है ? परित संसारी है ? अनंत संसारी है? सुलभ बोधि है ? दुर्लभ बोधि है ? आराधक है ? विराधक है? चरम है? अचरम है?
गौतम ! देवराज देवेन्द्र शक्र भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। सम्यग् दृष्टि है, मिथ्या दृष्टि नहीं है। परित संसारी है, अनन्त संसारी नहीं है। सुलभ बोधि है, दुर्लभ बोधि नहीं है। आराधक है, विराधक नहीं है। चरम है, अचरम नहीं है। इस प्रकार मोक उद्देशक (भ. ३/७२-७३) में सनत्कुमार की भांति वक्तव्यता यावत् अचरम नहीं है।
अज्जूहित्ता का अर्थ अपोह्य-अदत्त्वा दिए बिना किया है। * इसका तात्पर्यार्थ यह है-शक्र मुंह पर हाथ, वस्त्र आदि दिए बिना बोलता है तब उसकी भाषा सावद्य होती है। जब देवराज शक्र मुंह पर सूक्ष्मकाय - हाथ, वस्त्र आदि लगाकर बोलता है तब बोलते समय जीव संरक्षण होता है, इसलिए उसकी भाषा अनवद्य है। चार्य वृत्ति के मत का समर्थन किया है, अपने वार्तिक में जीव का अर्थ वायुका का जीव किया है।
उक्त व्याख्या के विमर्श बिन्दु
१. अवद्य शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-गर्हित, निंदित, पाप, प्रायश्चित्त योग्य, अस्वीकार करने योग्य, पाप युक्त, नीच और अप्रशंसनीय ।
प्रस्तुत प्रकरण में अवद्य का अर्थ गर्हित किया जाए अथवा पाप ?
सूक्ष्मकाय कहाय, हस्तादिक वस्तु प्रतै।
वृद्ध बंदे इम वाय, अन्य आचार्य वस्त्र कहे ॥
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हस्तादिक आवृत्त, बोलंतां जंतू-रक्षा |
निरवद वचन उचित्त, अन्य बच सावज्ज इम वृत्तौ ॥
वात्तिक- 'वृत्ति' में जीव नीं रक्षा कही ते वायुकाय नां जीव जाण्या देवलोक में विकलेन्द्री नां प्रज्याप्ता नां स्थानक नथी । अनैं मनुष्य लोक में इंद्रादिक आवै तेहनां मुख नैं विषे माखी माछरादिक प्रवेश नो उपद्रव न संभव, तै भणी ए वायुकाय नीं रक्षा जाणवी ।
८. आप्टे ।
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