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श. १४ : उ. १ : सू. २
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बदलती रहती है। उसमें आरोह-अवरोह होता रहता है। जीवन में आयुष्य का बंध एक बार होता है।'
आयुष्य का बंध अनिर्णीत रहता है, उस स्थिति में आयुष्य बंध के योग्य परिणामों में उतार-चढाव आता रहता है। इस सिद्धांत का निष्कर्ष है - चरम देवावास का व्यतिक्रमण और परम देवावास की असंप्राप्ति ।
लेश्या के प्रतिपतन का सिद्धांत कर्म लेश्या पर आधृत है। वृत्तिकार कर्मया का अर्थ कर्म के कारण होने वाली जीव की परिणति किया है । इसका तात्पर्य है भाव लेश्या ।' कर्म लेश्या से संबद्ध परमाणु स्कंधों के लिए भी कर्म लेश्या पद का प्रयोग होता है। द्रष्टव्य भगवई १४ / १२३-१२५।
उत्तराध्ययन में छहों लेश्याओं को कर्म लेश्या कहा गया है। उसके चौंतीसवें अध्ययन का आमुख द्रष्टव्य है।
यदि देवावास में उत्पन्न देव उत्पत्ति के समय होने वाले परिणाम की आराधना करता रहता है तो शुभ लेश्या निरंतर बनी रहती है। यदि वह उत्पत्तिकालीन परिणाम की विराधना करता है तो उसका प्रतिपात हो जाता है, अशुभ लेश्या आ जाती है। देवावास की द्रव्यलेश्या वही रहती है क्योंकि देवता की द्रव्य लेश्या अवस्थित होती है। "
वैमानिक देवों में द्रव्य लेश्या तीन होती हैं-पीत, पद्म और शुक्ल । भाव लेश्या छहों ही होती हैं।"
२. अणगारे णं भंते! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कंते, परमं असुरकुमाराबासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! कहिं गती? कहिं उववाए पण्णत्ते? गोयमा ! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा असुरकुमारावासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स उबवाए पण्णत्ते से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ |
१. द्रष्टव्य भ. ५ / ४६ - ६१, ६८-७१ का भाष्य ।
२. भ. वृ. सू. १४ / १- कम्मलेस्सामेव त्ति कर्म्मणः सकाशाद्या लेश्याजीवपरिणतिः सा कर्म्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः ।
३. उतर. ३४ / १।
४. भ. वृ. १४/१ - स पुनरनगारस्तत्र मध्यमभागवर्तिनि देवावासे गतः विराहिज्ज त्ति येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि विराधयेत्तदा .... 'तामेव प्रतिपतति' तस्या एव प्रतिपतति अशुभतरतां याति न तु
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भगवई
जयाचार्य ने लेश्या के प्रतिपात की विशद समीक्षा की है। उनके अनुसार शुभ लेश्या के मध्य में अशुभ लेश्या के परिणाम भी आ सक किन्तु उनमें तीव्र अशुभ लेश्या के परिणाम नहीं होते, अशुभ लेश्या के मंद परिणाम हो सकते हैं। उनकी विवक्षा नहीं की इसलिए शुभ लेश्या की निरंतरता का सूत्र प्रतिपादित किया गया है।
इस प्रकरण में आयुष्य तथा स्थिति आदि के बंध की योग्यता का प्रतिपादन किया गया है। एक अनगार उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय स्थानों में वर्तमान है, उन प्रशस्त अध्यवसाय स्थानों के आधार पर उसने सौधर्म आदि देवस्थिति के बंध की योग्यता का अतिक्रमण कर दिया, परभागवर्ती देवस्थिति आदि के बंध की योग्यता प्राप्त नहीं हुई है। इस नियम से आयुष्य-बंध का एक सिद्धांत फलित होता है कि आयुष्य बंध के प्रसंग जीवन में अनेक बार आते हैं, अध्यवसाय स्थानों उतार-चढ़ाव आता रहता है। ये सब आयुष्य बंध के प्रसंग हैं। " शब्द विमर्श
आदि ।
चरम - अर्वाग्वर्ती, पूर्ववर्ती, जैसे- सौधर्म । परम-परवर्ती, उत्तरवर्ती, जैसे- सनत्कुमार। परिपार्श्व - मध्यवर्ती, जैसे- सौधर्म और सनत्कुमार के मध्य ईशान
अनगारः भदन्त ! भावितात्मा चरमम् असुरकुमारावासं व्यतिक्रान्तः परमम् असुरकुमारावासमसम्प्राप्तः, अत्र अन्तरा कालं कुर्यात्, तस्य भदन्त ! कुत्र गतिः ? कुत्र उपपातः प्रज्ञप्तः ? गौतम! ये तस्य तत्र परिपार्श्वतः तल्लेश्याः असुरकुमारावासाः, तत्र तस्य गतिः, तत्र तस्य उपपातः प्रज्ञप्तः । सः तत्र गतः विराध्येत्, कर्मलेश्यामेव प्रतिपतति सः च तत्र गतः नो विराध्येत्, तामेव लेश्याम् उपसम्पद्य विहरति ।
कर्म लेश्या - भाव लेश्या ।
२. भंते! भावितात्मा अनगार ने चरम असुरकुमारावास का व्यतिक्रमण किया, परम असुरकुमारावास को प्राप्त नहीं किया, इस मध्य वह काल करे तो उसकी गति और उसका उपपात कहां प्रज्ञप्त है? गौतम ! वहां जो परिपार्श्व है, मध्यवर्ती असुरकुमारावास हैं, जिस लेश्या में वर्तमान भावितात्मा अनगार ने काल किया, उस लेश्या के अनुरूप जो असुरकुमारावास हैं, वहां उसकी गति और उसका उपपात प्रज्ञप्त है। वह वहां जाकर उत्पत्तिकालीन लेश्या के परिणाम की विराधना करता है तो कर्म लेश्या से उसका प्रतिपतन हो जाता है, अशुभतर लेश्या में चला जाता है। वह वहां जाकर विराधना नहीं करता है तो उसी लेश्या की उपसंपदा में रहता है।
द्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्यतोऽवस्थित लेश्यात्वा देवानमिति ।
५. त. भा. सू. वृ. ४/२३. प्र. ३०५ भावलेश्या पुनरध्यवसायरूपत्वात् षडपि वैमानिकानां सन्तीत्यवगन्तव्यम् ।
६. भ. जो. ढाल २६१ गाथा २६-५०१
७. भ. वृ. सू. १४/१ 1
८. भ. ३०/१०-११- द्रष्टव्य भगवई १ / ३५६-३६३ का भाष्य ।
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