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भगवई
एवं जाव थणियकुमारावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ ॥
१. सूत्र २
सम्यग्दृष्टि केवल वैमानिक देव के आयुष्य का बंध करता है। ' फिर भावितात्मा अनगार के असुरकुमार के आयुष्य का बंध कैसे हो सकता है? इस प्रश्न के समाधान में वृत्तिकार ने दो हेतु प्रस्तुत किए हैं१. भावितात्मा पूर्व काल की अपेक्षा से कहा गया है और वह अंत काल में संयम की विराधना कर देता है इसलिए उसका उपपात
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नो इणट्ठे समट्ठे। नेरइया णं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जति । नेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते । एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं - एगिंदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियव्वे । सेसं तं चैव ॥
एवं यावत् स्तनितकुमारावासम् ज्योतिष्कावासम् एवं वैमानिकावासं यावत् विहरति ।
१८३
नेरइयादीणं गतिविसय-पदं
नैरयिकादीनां गतिविषय-पदम्
उरस्सबलसमण्णागए
३. नेरइयाणं भंते ! कहं सीहा गती ? कहं नैरयिकादीनां भदन्त ! कथं शीघ्रा सीहे गतिविसए पण्णत्ते ? गतिः ? कथं शीघ्रः गतिविषयः प्रज्ञप्तः ? गोमा ! से जहानाम - केइ पुरिसे तरुणे गौतम ! अथ यथानामकः - कश्चित् बलवं जुगवं जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे पुरुषः तरुणः बलवान् युगवान् युवा दढ पाणि-पाय- पास पिछं तरोरुपरिणते अल्पातङ्कः स्थिराग्रहस्तः दृढपाणितलजमलजुयल - परिघनिभबाहू चम्मेहग- पाद-पार्श्व-पृष्ठान्तरोरुपरिणतः दुहण - मुट्ठिय समाहत - निचितगत्तकाए तलयमलयुगल-परिघनिभबाहु लंघण-पवण- चर्मेष्टक- द्रुघण- मुष्टिक- समाहतजइण - वायाम - समत्थे छेए दक्खे पत्तट्ठे निचित-गात्रकायः औरस्यबल - कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए समन्वागतः लङ्घन पवन-जविनआउंटियं बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा व्यायाम-समर्थः छेकः दक्षः प्राप्तार्थः बाहं आउंटेज्जा, विक्खिणं वा मुट्ठि कुशलः मेधावी निपुणः निपुणसाहरेज्जा, साहरियं वा मुट्ठि शिल्पोपगतः आकुञ्चितं बाहुं प्रसारयेत्, विक्खिरेज्जा, उम्मिसियं वा अच्छिं प्रसृतं वा बाहुम् आकुञ्चेत् विकीर्णं मुष्टिं निम्मिसेज्जा, निम्मिसियं वा अच्छिं संहरेत्, संहृतं वा मुष्टिं विकुर्यात् उम्मिसेज्जा, भवे एयारूवे ? उन्मिषितं वा अक्षिं निमिषेत् निमिषितं वा अक्षिम् उन्मिषेत्, भवेत् एतद्रूपः ?
१. भ. ३०/१०-११, द्रष्टव्य भ. १ / ३५६-३६३ का भाष्य ।
२. भ. वृ. सू. १४ / २ - पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वम् अन्तकाले च संयमविराधना असद्भावादसुरकुमारादितयोपपात इति न दोषः ।
३. भ. वृ. १४ / २ - बालतपस्वी वाऽयं भावितात्मा द्रष्टव्य इति ।
४. भ. जो. खंड ३, ढाल २६१. गाथा ५४-५७ ।
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भाष्य
इहां भावितात्म अणगार, किम उपजै असुर मझार । पिण चरण विराधक हुंत, कोई असुर विषै उपजंत ॥
असुरकुमार
में होता है।'
२. प्रस्तुत प्रकरण में भावितात्मा का प्रयोग बाल तपस्वी के लिए किया गया है।
नो अयमर्थः समर्थः । नैरयिकाः एकसामयिकेन द्विसामयिकेन वा त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण उपपद्यन्ते । नैरयिकानां गौतम ! तथा शीघ्रा गतिः, तथा शीघ्रः गतिविषयः प्रज्ञप्तः । एवं यावत् वैमानिकानाम् नवरम् - एकेन्द्रियाणां चतुर्सामयिकः विग्रहः भणितव्यः । शेषं तत् चैव ।
जयाचार्य ने वृत्तिकार के अभिमत के साथ एक बात और स्पष्ट की है - बाल तपस्वी भी गृहस्थ होता है अतः उसके लिए भी अनगार शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।"
श. १४ : उ. १ : सू. ३
इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्कावास, वैमानिकावास यावत् विहरण करता है।
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नैरयिक आदि का गति विषयक पद
३. भंते! नैरयिकों के कैसी शीघ्र गति होती है? किस प्रकार का शीघ्र गति काल प्रज्ञप्त है ? गौतम! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्, युवा, स्वस्थ और सधे हुए हाथों वाला है, उसके हाथ, पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और
दृढ तथा विकसित हैं। सम श्रेणी में स्थित दो ताल वृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजाएं हैं। चर्मेष्टक, पाषाण, मुद्गर और मुट्ठी के प्रयोगों से जिसके शरीर के पुट्ठे आदि सुदृढ हैं। जो आंतरिक उत्साह बल से युक्त है। लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है। छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल, मेधावी, निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह पुरुष संकुचित भुजा को फैलाता है, फैलाई हुई भुजा को संकुचित करता है। खुली मुट्ठी को बंद करता है, बंद मुट्ठी को खोलता है। खुली आंखों को बंद करता है, बंद आंखों को खोलता है। क्या नैरयिकों का गति-काल इतनी शीघ्रता से होता है ?
यह अर्थ संगत नहीं है। नैरयिक एक समय, दो समय अथवा तीन समय वाली विग्रह गति से उपपन्न हो जाते हैं। गौतम ! नैरयिकों के वैसी शीघ्र गति, वैसा शीघ्र गति-काल प्रज्ञप्त है। इस प्रकार यावत् वैमानिक, इतना विशेष है - एकेन्द्रियों के चार समय वाली विग्रह गति वक्तव्य है, शेष पूर्ववत् ।
पूर्व काल तणी अपेक्षाय, भावितात्मपणुं अंतकाल विराधि चरित्र, कोइ असुर विषै तथा बाल तपस्वी देख भावितात्मा कह्यो तसु लेख । को वृत्ति थी ए अधिकार, घर रहित माटे अणगार ॥ इम याबत थणियकुमारावासं, जोतिषि नां आवास प्रकाशं । वैमानीक आवासाज एम, यावत विचरंता सुर तेम ॥
कहिवाय । उपपत्तः ॥
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