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श. १४ : उ.१ : सू. ४,५
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भगवई
भाष्य १.सूत्र ३
प्रस्तुत आगम के चौंतीसवें शतक में 'एगसमयेणं विग्गहेणं नैरयिकों की गति भुजा को फैलाने और संकुचित करने से उववज्जेज्जा' यह स्पष्ट पाठ है।' अधिक त्वरित बतलाई गई है। इसका हेतु यह है-भुजा को फैलाने विमर्श के लिए द्रष्टव्य भगवई १/३३५-३३८ का भाष्य।
और संकुचित करने में असंख्य समय का काल लगता है। नैरयिक सूत्रकार ने एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति चार समय वाली एक, दो अथवा तीन समय में नरक के उत्पत्ति स्थान में चले जाते हैं बतलाई है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या में लिखा है- सनाड़ी से इसलिए उनकी गति अति त्वरित है।
बाहर अधोलोक में मरने वाला जीव विदिशा से दिशा में आता है। सूत्र में विग्रह शब्द का प्रयोग एक समय, दो समय और तीन । जीवों की गति अनुश्रेणी होती है, इस नियम के अनुसार उसकी गति समय-तीनों के साथ किया गया है। अभयदेवसूरि ने एक समय की का कालमान एक समय होता है। वह जीव दूसरे समय में लोक के गति के साथ विग्रह शब्द के योग को अस्वीकृत किया है।' उन्होंने मध्य में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है, चौथे विग्रह को वक्र का पर्यायवाची माना है इसलिए उन्होंने एक समय वाली __ समय में निश्चित दिशा में व्यवस्थित उत्पत्ति स्थान में जाता है। गति के साथ विग्रह शब्द को अस्वीकार किया है किंतु विग्रह का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार सूत्र का यह पाठ बहुलता की अपेक्षा से केवल वक्र नहीं है।
है। अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय वाली गति भी होती सिद्धसेन गणि ने भाष्य को उद्धत करते हए विग्रह शब्द के है।' पर्यायवाची तीन शब्दों का उल्लेख किया है-विग्रह, अवग्रह और जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत की समीक्षा की है और बतलाया श्रेण्यन्तर संक्रान्ति।
है कि यह मत आगम सम्मत नहीं है।' नेरइयादीणं अणंतरोववन्नगादि-पदं नैरयिकादीनाम् अनन्तरोपपन्नकादि-पदम नैरयिक का अनंतर उपपन्नक आदि पद ४. नेरइया णं भंते! किं अणंतरोववन्नगा? । नैरयिकाः भदन्त! किम् ४. भंते! क्या नैरयिक अनंतर उपपन्नक है? परंपरोववन्नगा? अणंतर-परंपर- अनन्तरोपन्नकाः? परम्परोपपन्नकाः? परंपर उपपन्नक हैं? अनंतर-परंपर अनुपपन्नक अणुववन्नगा ?
अनन्तर-परम्पर-अनुपपन्नकाः? गोयमा! नेरइया अणंतरोववन्नगा वि, गौतम! नैरयिकाः अनन्तरोपपन्नकाः गौतम! नैरयिक अनंतर उपपन्नक भी हैं, परंपरोववन्नगा वि, अणंतर-परंपर- अपि, परम्परोपपन्नकाः अपि, अनन्तर- परंपर उपपन्नक भी हैं, अनंतर-परंपर अणुववन्नगा वि॥ परम्पर-अनुपपन्नकाः अपि।
अनुपपत्रक भी हैं।
जया
हैं?
५. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ५. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है
अणंतरोववनगा वि, परंपरोववन्नगा वि, नैरयिकाः अनन्तरोपपन्नकाःअपि, नैरयिक अनंतर उपपन्नक भी हैं, परंपर अणंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि ? परम्परोपपन्नकाः अपि, अनन्तर- उपपन्नक भी हैं, अनंतर-परंपर अनुपपत्रक भी
परम्पर-अनुपपन्नकाः अपि। गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयोव- गौतम! ये नैरयिकाः प्रथमसमयोपपन्नकाः गौतम! जो नैरयिक प्रथम समय उपपन्नक हैं, वे बन्नगा ते ण नेरइया अणंतरोववन्नगा, जे तेनैरयिकाः अनन्तरोपपन्नकाः,येनैरयिकाः नैरयिक अनंतर उपपत्रक हैं। जो नैरयिक णं नेरइया अपढमसमयोग्वनगा ते णं अप्रथमसमयोपपन्नकाः ते नैरयिकाः अप्रथमसमय उपपन्नक हैं. वे नैरयिक परंपरनेरइया परंपरोववन्नगा, जे णं नेरइया परम्परोपपन्नकाः, ये नैरयिकाः विग्रह- उपपन्नक हैं। जो नैरयिक विग्रह गति-अंतराल विम्गहगइसमावन्नगा ते णं नेरइया गतिसमापन्नकाः ते नैरयिकाः अनन्तर- गति में समापत्रक हैं, वे नैरयिक अनंतर-परंपर अणतर-परंपर-अणुववन्नगा। से तेणटेणं परम्पर-अनुपपन्नकाः। तत् तेनार्थेन अनुपपन्नक हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा जाव अणंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि। एवं यावत् अनन्तर-परम्पर-अनुपपन्नकाः है-यावत् अनंतर-परंपर अनुपपन्नक भी हैं। निरंतरं जाव वेमाणिया॥
अपि। एवं निरन्तरं यावत् वैमानिकाः। इसी प्रकार निरंतर यावत् वैमानिक। १. भ. वृ. सू. १४/३-एगसमएण व ति एकेन समयेनोपपद्यन्त इति योगः, तेच याति, चतुर्थेन तु वसनाडीतो निर्गत्य दिगव्यवस्थितमत्पादस्थानं
ऋजुगतावेव, या शब्दो विकल्पे, इह च विग्रहशब्दो न संबंधितः, तस्यैक प्राप्नोतीति, एतच बाहुल्यमंगीकृत्योच्यते, अन्यथा पंचसमयोऽपि विग्रहो सामयिकस्याभावात् दुसमएण व ति द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयस्तेन भवेदेकेन्द्रियाणाम्। विग्रहेणेति योगः, एवं त्रिसमयेन वा विग्रहेण-वक्रेण।
५. भ. जो. खंड ३. ढाल २६१. गाथा १०३-१०५॥ 2. तत्त्वार्थाधिगम सू. २/२६ स्वोपज्ञ भाष्य. पृ. १८२-१८३. विग्रहो बक्रितम्, वृत्ति में बहु बाता विरुद्ध, सूत्र थी अणमिलती अशुद्ध। विग्रहोऽवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्तिरित्यनर्थान्तरम्।
ते अशुद्ध किण रीत मानीजै, मिलती है ते अंगीकार कीजै॥ ३. भ. ३४/३ उज्जु आयत्ताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं छद्मस्थ अणाहारि सोय, सूत्र में कह्या समया दोय। उववज्जेज्जा।
तीन समय कह्या वृत्तिकार, ए पिण पंच समय जिम धार॥ ४. भ. वृ. प. १४/३-वसनाड्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येकेन, तिणसुं अणमिलती न मनाय, विरुद्ध बात बहु वृत्ति माय।
जीवानामनुश्रेणिगमनात्, द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति, तृतीयेनोवं वर न्याय विचार बरीत, राखो सूत्र तणीज प्रतीत॥
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