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________________ श. १४ : उ. ८ : सू. ११३,११४ २२४ भगवई पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे पाद प्रौञ्छनेन औषधभैषज्येन सीलवय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण- प्रातिहारिकेण पीठफलकशय्यासंस्तारकेण पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं प्रतिलाभयन् शीलव्रत-गुण-विरमणतवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः यथापरिजाव दढप्पइण्णो अंतं काहिति॥ गृहीतैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन् विहरति, यावत् दृढप्रतिज्ञः अन्तं करिष्यति। करने वाला, श्रमण निग्रंथों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौञ्छन, औषध-भैषज्य, प्रातिहार्य पीठ-फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाला, बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहा है यावत् दृढप्रतिज्ञ की भांति अंत करेगा। भाष्य १. सूत्र १०७-११२ प्रस्तुत प्रकरण में विमर्शनीय बिन्दु ये हैंऔपपातिक सूत्र में परिव्राजक चर्या का विशद वर्णन है। उसके अम्मड परिव्राजक के शिष्यों ने पहले स्थूल प्राणातिपात आदि अनुसार सांख्य, योग, योगी कापिल आदि अनेक श्रेणी के परिव्राजकों का प्रत्याख्यान किया तथा सर्व मैथुन का प्रत्याख्यान किया। पश्चात् का निर्देश उपलब्ध है। आठ ब्राह्मण परिव्राजकों तथा आठ क्षत्रिय सर्व प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान किया। इन दोनों तथ्यों की परिव्राजकों का नामोल्लेख भी मिलता है। परिव्राजक चर्या के साथ कैसे संगति हो सकती है? अम्मड के अंतेवासी और अम्मड की चर्या का भी विस्तृत विवरण अम्मड के लिए 'श्रमणोपासक' की चर्या का विधान भी कैसे किया गया है। अम्मड का प्रकरण भगवती से औपपातिक में लिया संगत है? गया है अथवा औपपातिक से भगवती में? यह विमर्शनीय है। कथावस्तु के निगमन में अम्मड के शिष्यों को परिव्राजक ही प्रकरण की समग्रता को देखते हुए इस निष्कर्ष तक पहुंचने में बतलाया गया है-तए णं ते परिवाया बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति।' कोई कठिनाई नहीं है कि यह प्रकरण औपपातिक से भगवती में संगृहीत इससे प्रमाणित होता है कि अंत तक वे परिव्राजक रहे। अम्मड भी किया गया है। भगवती में परिव्राजक का कोई प्रकरण नहीं है। केवल अंत तक परिव्राजक रहा। इसलिए श्रमणोपासक का वर्णन एक अम्मड़ के शिष्यों और अम्मड की चर्या का प्रसंग उपलब्ध है। इसका विचारणीय विषय है। दूसरा समर्थन हेतु यह है- भगवती में 'एवं जहा ओबवाइए जाव आराहगा' स्थानांग में अम्मड परिव्राजक का उल्लेख है। वृत्तिकार इस संक्षिप्त पाठ में औपपातिक को देखने का निर्देश दिया गया है। अभयदेवसूरि के अनुसार वह औपपातिक में उल्लिखित अम्मड औपपातिक की वृत्ति में अम्मड के शिष्यों को महर्षि चरक का परिव्राजक से भिन्न है। परिव्राजक बतलाया गया है। अव्वाबाहदेव-सत्ति-पदं अन्यावाधदेव-शक्ति-पदम् अन्याबाध देव शक्ति पद ११३. अस्थि णं भंते! अन्दाबाहा देवा अस्ति भदन्त! अव्याबाधाः देवाः ११३. भंते! अव्याबाध देव अव्याबाध देव हैं? अव्वाबाहा देवा? अव्याबाधाः देवाः? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, हैं। ११४. से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ११४. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अन्याबाहा देवा अव्वाबाहा देवा? अव्याबाधाः देवाः अव्याबाधाः देवाः? है-अव्याबाध देव अव्याबाध देव हैं? गोयमा! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे गौतम! प्रभुः एकैकः अव्याबाधः देवः । गौतम! प्रत्येक अव्याबाध देव प्रत्येक मनुष्य के एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि ___ एकैकस्य पुरुषस्य एकैकस्मिन् अक्षिपत्रे प्रत्येक अक्षि-पत्र पर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव अच्छिपत्तसि दिव्वं देविहि, दिव्वं दिव्यां देवर्द्वि, दिव्यां देवद्युति, दिव्यं द्युति, दिव्य देवानुभाग, दिव्य बत्तीस प्रकार देवज्जुति, दिव्वं देवाणुभाग, दिव्वं देवानभाग, दिव्यां द्वात्रिंशदविधां की नाट्य विधि का उपदर्शन करने में समर्थ बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए, नो चेव नाट्यविधिम उपदर्शयितुम, नो चैव है। वह उस पुरुष को किञ्चित् आबाध अथवा णं तस्स परिसस्स किंचि आबाहं वा तस्य पुरुषस्य किञ्चित् आबाधां वा व्याबाध उत्पन्न नहीं करता, छविच्छेद भी वाबाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेइ, व्याबाधां वा उत्पादयति, छविच्छेदं वा करता है, इस कौशल के साथ उपदर्शन एसहमं च णं उवदंसेज्जा। से तेणढेणं करोति, इयत्सूक्ष्मं च उपदर्शयेत्। तत् करता है। १. ओव. पदं ८६-११४ ___५. ओव. पदं १४० अम्मडेणं भंते! परिव्वायए कालमासे कालं किया कहिं २. ओव. पदं ११५-१४० __गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? ३. औप. पृ. पत्र १८०-अथ ये घरकपरिव्राजकाः ब्रह्मलोकं गतास्तदुप- ६. स्था. वृ. पत्र ४३४ यश्चौपपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते दर्शनेनाधिकृतार्थं समर्थयन्नाह सोऽन्य इति संभाव्यते। ४. ओव. पदं ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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