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________________ भगवई २२३ श. १४ : उ. ८ : सू. ११२ छट्ठछटेणं अणिक्वित्तेणं तबोकम्मेणं मृदुमार्दव-सम्पन्नतया आलीनतया उडे बाहाओ पगिज्झिय-पगिझिय विनीततया षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आया- तपः कर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य वेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं सूराभिमुखस्य आतापनभूम्याम् अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसज्झमाणीहिं आतापयतः शुभेन परिणामेन प्रशस्तैः अण्णया कयाइ तदावरणिज्जाणं कम्माणं अध्यवसानैः लेश्याभिः विशुध्यमानाभिः खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं अन्यदा कदाचित् तदावरणीयानां करेमाणस्स वीरियलद्धीए वेउब्धियलद्धीए कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणओहिनाणलद्धी समुप्पण्णा। गवेषणं कुर्वतः वीर्यलब्धि-वैक्रियलब्धिअवधिज्ञानलब्धिः समुत्पन्ना। संपन्न, आलीन (संयतेन्द्रिय) और विनीत है। वह निरंतर बेले-बेले (दो-दो दिन का उपवास) के तप की साधना करता है। दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता है। उसके शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और लेश्या की उत्तरोत्तर होने वाली विशुद्धि से किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ। उसके होने पर ईहा, ऊहापोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए वीर्य लब्धि, वैक्रिय लब्धि और अवधिज्ञान लब्धि उत्पन्न तए णं से अम्मडे परिवायए तीए ततः सः अम्बडः परिव्राजकः तया वीरियलद्धीए वेउब्बियलद्धीए वीर्यलब्ध्या वैक्रियलब्ध्या अवधिज्ञान ओहिनाणलद्धीए समुप्पण्णाए जण- लब्ध्या समुत्पन्नया जनविस्मापनहेतुं विम्हावणहेर्ड कंपिल्लपुरे नगरे घरसए काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते आहारम् आहारमाहरेइ, घरसए वसहि उवेइ। से। आहरति, गृहशते वसतिम् उपैति। तत् तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-अम्मडे तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-अम्बडः परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उबेइ॥ आहारम् आहरति, गृहशते वसतिम् उपैति। वह अम्मड़ परिव्राजक उस वीर्यलब्धि, वैक्रिय लब्धि और अवधिज्ञान लब्धि के होने पर जनसमूह को विस्मय में डालने के लिए कंपिलपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अम्मड़ परिव्राजक कंपिलपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता ११२. पह णं भंते! अम्मडे परिवायए प्रभुः भदन्त! अम्बडः परिव्राजकः ११२. भंते! क्या अम्मड परिव्राजक देवानुप्रिय देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा के पास मुंड हो, अगार से अनगारिता में अगाराओ अणगारियं पञ्चइत्तए? अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्? प्रव्रजित होने में समर्थ है? नो इणढे समझे। नो अयमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। गोयमा! अम्मडे ण परिवायए गौतम! अम्बडः परिव्राजकः गौतम! श्रमणोपासक अम्मड परिव्राजक समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उव- श्रमणोपासकः अभिगतजीवाजीवः जीव-अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के लद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निज्जर- उपलब्धपुण्यपापः आश्रव-संवर- मर्म को समझने वाला, आसव, संवर, किरियाहिगरण-बंध-मोक्खकुसले निर्जरा-क्रियाऽधिकरण-बन्ध-मोक्ष- निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष असहेज्ज देवासुरनाग-सुवण्ण-जक्ख- कुशलः असहाय्यः देवासुरनाग-सुपर्ण- के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं रक्खस-किन्नर किंपुरिस-गरुल-गंधव्व- यक्ष-राक्षस-किन्नर-किंपुरुष-गरुड- निश्चल, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, महोरगाइएहिं निग्गंधाओ पावयणाओ गान्धर्व-महोरगादिकैः नैर्ग्रन्थात राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, अणइक्कमणिज्जे, इणमो निग्गंधे प्रवचनात् अनतिक्रमणीयः (इणमो) महोरग आदि देव गणों के द्वारा निग्रंथ प्रवचन पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए नैर्ग्रन्थे प्रवचने निःशंकितः निष्कांक्षितः से अविचलनीय, इस निग्रंथ प्रवचन में शंका निव्वतिगिच्छे लट्टे गहियढे पुच्छियढे निर्विचिकित्सः लब्धार्थः गृहीतार्थः रहित, कांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित, अभिगयढे विणिच्छियढे अद्विमिंज- पृष्टार्थः अभिगतार्थः विनिश्चतार्थः यथार्थ को सुनने वाला, ग्रहण करने वाला, पेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो! निग्गंथे अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्तः उस विषय में प्रश्न करने वाला, उसे जानने पावयणे अद्वे, अयं परमद्वे, सेसे अणढे, इदमायुष्मन् ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् अर्थः, वाला, उसका विनिश्चय करने वाला, चउद्दसअट्ठमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं इदं परमार्थः, शेषम् अनर्थः, प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि मज्जा वाला, पोसह अणुपालेमाणे, समणे निग्गंथे चतुर्दशाष्ट-मोद्दिष्ट-पूर्णमासीषु आयुष्मन्! यह निग्रंथ प्रवचन यथार्थ है, यह फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम- प्रतिपूर्ण पौषधम् अनुपालयन् श्रमणान् परमार्थ है, शेष अनर्थ है (ऐसा मानने वाला) साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पाय- निर्ग्रन्थान् प्रासुकएषणीयेन अशन-पान- चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा पच्छणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएणं खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र-प्रतिग्रह-कम्बल- को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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