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________________ भगवई २२५ श. १४ : उ. ८ : सू. ११५-११८ बुच्चइ-अव्वाबाहादेवा गोयमा! एवं अव्वाबाहा देवा॥ तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेअव्याबाधाः देवाः अव्याबाधाः देवाः। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अव्याबाध देव अव्याबाध देव हैं। सक्कस्स सत्ति-पदं ११५. पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं सपाणिणा असिणा छिदित्ता कमंडलुंसि पक्खिवित्तए? हंता पभू॥ शक्रस्य शक्ति-पदम् प्रभुः भदन्त! शक्रः देवेन्द्रः देवराजा पुरुषस्य शीर्ष सपाणिना असिना छित्त्वा कमण्डुले प्रक्षेप्तुम्? हन्त प्रभुः। शक्र का शक्ति-पद ११५. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र हाथ में तलवार ले पुरुष के सिर का छेदन कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप करने में समर्थ है? हां, समर्थ है। ११६. से कहमिदाणिं पकरेति ? सः कथम् इदानीं प्रकरोति? ११६. वह यह कैसे करता है? गोयमा! छिंदिया-छिंदिया च णं पक्खि- गौतम! छित्त्वा-छित्त्वा च प्रक्षिपेत्, गौतम! वह पुरुष के सिर को छिन्न-छिन्न कर वेज्जा, भिंदिया-भिंदिया च णं पक्खि- भित्त्वा-भित्त्वा च प्रक्षिपेत्, कुट्टित्वा- उसका कमंडलु में प्रक्षेप करता है। भिन्नवेज्जा, कोट्टिया-कोट्टिया च णं पक्वि- कुट्टित्वा च प्रक्षिपेत्, चूर्णित्वा-चूर्णित्वा भिन्न कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप करता है। वेज्जा, चुण्णिया-चुण्णिया च णं च प्रक्षिपेत्, ततः पश्चात् क्षिप्रमेव कूट-पीस कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप करता पक्खिवेज्जा, तओ पच्छा खिप्पामेव प्रतिसंघातयेत्, नो चैव तस्य पुरुषस्य । है। उसे चूर्ण चूर्ण कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप पडिसंघाएज्जा, नो चेव णं तस्स किंचित् आबाधां वा व्याबाधां वा करता है। उसके पश्चात् क्षण भर में ही सिर पुरिसस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उत्पादयेत्, छविच्छेदं पुनः करोति, का प्रतिसंधान कर देता है। उस पुरुष के उप्पाएज्जा, छविच्छेयं पुण करेइ, एसुहुमं इयत्सूक्ष्मं प्रक्षिपेत्। किञ्चित् आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न नहीं चणं पक्खिवेज्जा॥ करता, छविच्छेद भी करता है। वह इस कौशल के साथ सिर का कमण्डलु में प्रक्षेप करता है। भाष्य १. सूत्र ११३-११६ भी अव्याबाध का लोकान्तिक देव के रूप में उल्लेख किया है। प्रस्तुत आलापक में दिव्य शक्ति के कौशल का प्रतिपादन किया लोकान्तिक देव सम्यग् दृष्टि संपन्न होते हैं। सर्वार्थसिद्धि में भी इनके गया है। बारे में कुछ विशेष विवरण उपलब्ध हैं-'लोकान्तिक देव स्वतंत्र हैं। अव्याबाघ देव मनुष्य के अक्षि-पक्ष्म-आंख की पलक पर इनमें कोई हीन और अधिक नहीं हैं। विषय विरत होने के कारण देवबत्तीस प्रकार के नाटक का उपदर्शन करते हैं, फिर भी उस मनुष्य ऋषि कहलाते हैं। दूसरे देवों के लिए ये अर्चनीय है। ये चतुर्दश पूर्व के को कोई बाधा नहीं पहुंचाते, कष्ट नहीं देते, इसलिए इनकी संज्ञा धारक होते हैं। तीर्थंकर के निष्क्रमण के समय ये प्रतिबोध का दायित्व अव्याबाध है। निभाते हैं। लोकान्तिक देवों में अव्याबाध देव का उल्लेख है।' वृत्तिकार ने जंभगदेव-पदं ११७. अस्थि णं भंते! जंभगा देवा जंभगा देवा? हंता अत्थि॥ मुंभक देव पद ११७. भंते! जूभक देव जृभक देव हैं? जृम्भकदेव-पदम् अस्ति भदन्त! जम्भकाः देवाः जृम्भकाः देवाः? हन्त अस्ति। हां, हैं। ११८. से केणटेणं भंते! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ११८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा जंभगा देवा जंभगा देवा? जम्भकाः देवाः, जम्भकाः देवाः? है-जंभक देव जंभक देव हैं? गोयमा! जंभगा णं देवा निचं पमदित- गौतम! जम्भकाः देवाः नित्यं प्रमदित- गौतम! जृम्भकाः देवाः नित्यं प्रमुदित- गौतम! Mभक देव नित्य प्रमुदित, बहुत गौत पक्कीलिया कंदप्परति-मोहणसीला। जे प्रक्रीडिताः कंदर्परति-मोहनशीलाः। यः क्रीडाशील, कंदर्प में रमण करने वाले और १ (क) भ. ६/११० ३. त. सू. भा. ४/२५ की वृत्ति । (ख) त. सू. ४/२६ ४. सर्वार्थसिद्धिः ४/२५ की वृत्ति-सर्वे एते स्वतंत्राः हीनाधिकत्वाभावात्, २. भ. वृ. १४/११३-व्याबाधन्ते-परं पीडयन्तीति व्याबाधस्तन्निषेधाद- विषयरतिविरहाद्देवर्षयः, इतरेषां देवानामर्चनीयाः, चतुर्दशपूर्वधराः व्याबाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगताः द्रष्टव्याः । तीर्थकरनिष्क्रमणप्रतिबोधनपरा येदितव्याः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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