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भगवई
श. १४ : उ. ८ : सू. ११६-१२१ णं ते देवे कुद्धे पासेज्जा, से णं पुरिसे महतं अयसं पाउणेज्जा। जे णं ते देवे तुढे पासेज्जा, से णं महतं जसं पाउणेज्जा। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ-जंभगा देवा जंभगा देवा॥
तान् देवान् क्रुद्धान् पश्येत्, सः पुरुषः महान्तम् अयशः प्राप्नुयात्। यः तान् देवान् तुष्टान् पश्येत्, सः महान्तं यशः प्राप्नुयात्। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-जृम्भकाः देवाः जृम्भकाः देवाः।
कामवासना प्रिय होते हैं। वे देव जिसे क्रुद्ध होकर देखते हैं, वह पुरुष महान अयश को प्राप्त होता है। वे देव जिसे तुष्ट होकर देखते हैं, वह पुरुष महान् यश को प्राप्त होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैमुंभक देव जुंभक देव हैं।
११६. कतिविहा णं भंते! जंभगा देवा कतिविधाः भदन्त! जृम्भकाः देवाः ११६. भंते ! Mभक देव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त पण्णत्ता?
प्रज्ञप्ताः? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! दस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अन्न अन्नजंभगा, पाणजंभगा, वत्थजंभगा, अन्नजृम्भकाः, पानजृम्भकाः, वस्त्र- मुंभक, पान मुंभक, वस्त्र मुंभक, लयन लेणजंभगा, सयणजभगा, पुष्फजंभगा, जृम्भकाः, लयनजृम्भकाः, शयन- जुंभक, शयन मुंभक, पुष्प मुंभक, फल फलजंभगा, पुष्फ-फल-जंभगा, विज्जा- जृम्भकाः, पुष्पजृम्भकाः, फल- मुंभक, पुष्प-फल मुंभक, विद्या मुंभक, जंभगा, अवियत्तिजंभगा॥
जृम्भकाः, पुष्प-फल-जृम्भकाः, अव्यक्त ज़ुभक। विद्याजृम्भकाः, अव्यक्तिजृम्भकाः।
१२०. भंते ! जूभक देव कहां निवास करते हैं?
१२०. जंभगा णं भंते! देवा कहि वसहि जम्भकाः भदन्त! देवाः कुत्र वसतिम् उर्वति?
उपयान्ति? गोयमा! सव्वेसु चेव दीहवेयढेसु, गौतम! सर्वेषु चैव दीर्घवैताढ्येषु, चित्र- चित्तविचित्तजमगपब्वएस, कंचणपन्चएस विचित्र-यमक-पर्वतेष, काञ्चन-पर्वतेष य, एत्थ णं जंभगा देवा वसहि उवेंति॥
च, अत्र जृम्भकाः देवाः वसतिम उपयान्ति।
गौतम! सब दीर्घ वैताढ्य पर्वतों पर चित्रकूट, विचित्रकट, यमक पर्वत पर्वतों पर-इन स्थानों पर जंभक देव निवास करते हैं।
१२१. जंभगाणं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता॥
जम्भकानां भदन्त! देवानां कियत् कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम! एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता।
१२१. भंते! जंभक देवों की स्थिति कितने काल
की प्रज्ञप्त है? गौतम! एक पल्योपम की स्थिति प्रज्ञप्त है।
भाष्य १. सूत्र ११७-१२१
नीलवान द्रह हैं। उनके पूर्व पश्चिम तटों पर दस-दस काञ्चन पर्वत हैं। प्रस्तुत आलापक में जृभक देवों के कार्य और प्रकारों का निरूपण इस प्रकार उत्तरकुरु में सौ काञ्चन पर्वत हैं। किया गया है। ये व्यंतर जाति के देव हैं। ये स्वच्छंद विहार करने वाले देवकुरु में शीतोदा नदी के निषध आदि पांच द्रहों के दोनों तटों हैं। ये तुष्ट होकर अनुग्रह तथा रुष्ट होकर निग्रह करते रहते हैं। इनका पर दस-दस कांचन पर्वत हैं। इस प्रकार देवकुरु में सौ काञ्चन पर्वत निवास-स्थान तिर्यक् लोक में है। सूत्रकार ने इनके निम्नवर्ती निवास- अवस्थित हैं। स्थान बतलाए हैं
प्रज्ञापना में व्यंतर देवों के असंख्येय भौमेय नगरावास बतलाए . दीर्घ वैताढ्य पर्वत-ये दीर्घ विजयार्ध में अवस्थित हैं। पांच गए हैं। भरत, पांच ऐरावत और पांच महाविदेह-इनमें इनकी संख्या एक सौ शब्द-विमर्श सत्तर है।
अन्न भक-भोजन के अभाव और सद्भाव, अल्पता और बहुता, • चित्रकूट विचित्रकूट पर्वत-इनकी अवस्थिति देवकुरु समूह में सरसता और नीरसता-आदि आदि क्रिया के संपादन में समर्थ भक। शीतोदा नदी के दोनों किनारों पर है।
पान मुंभक-पानी के अभाव और सद्भाव, अल्पता और बहुता, • यमक पर्वत की अवस्थिति उत्तरकुरु समूह में शीता नदी के सरसता और नीरसता-आदि आदि क्रिया के संपादन में समर्थ भक तट पर है।
• काञ्चन पर्वत-ये उत्तरकुरु समूह में शीता नदी से संबद्ध पांच
२. पण्ण. २/४१-४७।
१. (क) भ. वृ. १४/११७-१२१॥
(ख) भ. जो. ढा. ३०२, गाथा ५२-५७।
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