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________________ भगवई ३८६ श. १६ : उ. ८ : सू. ११८,११६ गोयमा! जावं च णं से पुरिसे वासं गौतम! यावत् च सः पुरुषः वर्ष वर्षति, वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वर्ष नो वर्षति इति हस्तं वा पादं वा वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेति वा बाहां वा ऊरुं वा आकुञ्चयति वा पसारेति वा, तावं च णं से पुरिसे प्रसारयति वा तावत् च सः पुरुषः काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए । कायिक्या आधिकरणिक्या प्रादोषिक्या पारितावणियाए पाणातिवायकिरियाए- पारितापनिक्या प्राणातिपातिक्रिययापंचहि किरियाहिं पुढे॥ पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। गौतम! वर्षा हो रही है या वर्षा नहीं हो रही है-यह जानने के लिए पुरुष जिस समय हाथ, पैर, बाहु, जंघा का आकुंचन अथवा प्रसारण करता है उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी प्रादोषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपात क्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। भाष्य सूत्र ११७ यह सापेक्ष सूत्र है। सूत्र का वक्तव्य है-वर्षा की अवगति के लिए हाथ फैलाने वाला पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। वृत्तिकार ने इस विषय का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया। जयाचार्य ने इसके रहस्य का स्पर्श करते हुए लिखा है-यदि हाथ पसारने पर जल बिन्दु का स्पर्श नहीं हुआ तो वह तीन क्रिया से स्पृष्ट होता है। जल बिन्दु से स्पर्श होने पर वह पांच क्रिया से स्पृष्ट होता है। जयाचार्य के मंतव्य का समर्थन नौवें शतक से होता है। पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय का श्वास-उच्छ्वास लेता हुआ कितनी क्रिया से स्पृष्ट होता है? इसके उत्तर में भगवान् ने बतलाया-स्यात् तीन क्रिया से, स्यात् चार क्रिया से, स्यात् पांच क्रिया से। यदि परितापन होता है तो वह चार क्रिया से स्पृष्ट होता है। यदि प्राण वियोजन होता है तो वह पांच क्रिया से स्पृष्ट होता है। परिताप के बिना चौथी क्रिया तथा प्राण वियोजन के बिना पांचवीं क्रिया से कोई स्पृष्ट नहीं होता। अलोए गतिनिसेध-पदं अलोकगतिनिषेध-पदम् अलोक-गति निषेध पद ११८. देवे णं भंते! महिडिए जाव देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् ११८. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली महेसक्वे लोगंते ठिचा पभू अलोगंसि महेशाख्यः लोकान्ते स्थित्वा प्रभुः के रूप में प्रख्यात देव लोकान्त में स्थित हत्थं वा पायं वा बाहं वा उरुं वा अलोके हस्तं वा पादं वा बाहां वा ऊरूं होकर अलोक में हाथ, पैर, बाहु अथवा जंघा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? वा आकुञ्चयितुं वा प्रसारयितुं वा? का आकुंचन एवं प्रसारण करने में समर्थ है? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ११६. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-देवे णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-देवः ११६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा महिहिए जाव महेसक्वे लोगते ठिचा नो महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः लोकान्ते है-महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप पभू अलोगसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा स्थित्वा नो प्रभुः अलोके हस्तं वा पादं में प्रख्यात देव लोक के अंत में स्थित होकर ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? वा बाहां वा ऊरुं वा आकुञ्चयितुं वा अलोक में हाथ, पैर, बाहु अथवा जंघा का प्रसारयितुं वा? आकुंचन एवं प्रसारण करने में समर्थ नहीं है? गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया गौतम! जीवानाम् आहारोपचिताः । गौतम! पुद्गल जीवों का अनुगमन करते हैं, पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, पुद्गलाः, बोन्दिचिताः पुद्गलाः वे आहार के रूप में उपचित हैं, वे बोंदी के कलेवरचिया पोग्गला। पोग्गलामेव पप्प कलेवरचिताः पुद्गलाः। पुद्गलानेव प्राप्य रूप में चित हैं, वे कलेवर के रूप में चित हैं। जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए जीवानां च अजीवानां च गतिपर्यायः पुद्गलों का आश्रय लेकर जीवों और अजीवों आहिज्जा। अधीयते। अलोके नैव सन्ति जीवाः नैव का गति-पर्याय कहा गया है। अलोक में जीव अलोए णं नेवत्थि जीवा, नेवत्थि। सन्ति पुद्गलाः। तत् तेनार्थेन गौतम! नहीं हैं, पुद्गल नहीं हैं। गौतम! इस अपेक्षा पोग्गला। से तेणटेणं गोयमा! एवं एवमुच्यते-देवः महर्द्धिकः यावत् से यह कहा जा रहा है-महर्द्धिक यावत् महान् बुचइ-देवे महिडिए जाव महेसक्खे महेशाख्यः लोकान्ते स्थित्वा नो प्रभुः ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव लोक के लोगते ठिच्चा नो पभू अलोगंसि हत्थं वा अलोके हस्तं वा पादं वा बाहां वा ऊरूं अंत में स्थित होकर अलोक में हाथ, पैर, पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा वा आकुञ्चयितुं वा प्रसारयितुं वा। बाहु अथवा जंघा का आकुंचन एवं प्रसारण पसारेत्तए वा॥ करने में समर्थ नहीं है। २. भ.६/२५८/ १. भ. जो. ढा. ३६० गाथा १३ : एहवू इहा जणाय, जल बिन्दु फर्थे पंच क्रिया। छांट न लागी काय, तो त्रिण क्रिया गणाय छ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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