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श. १६ : उ. ८ : सू. १२०
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भगवई
भाष्य
सूत्र ११८-११६
आगम साहित्य में गति के अनेक नियम हैं
१. जहां धर्मास्तिकाय है, वहां गति है। अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है इसलिए वहां गति नहीं है, जीव और अजीव का प्रवेश नहीं है।
२.जहां जीव और पुद्गल का गति पर्याय है, वहां लोक है। जहां लोक है वहां जीव और पुद्गल का गति पर्याय है।
३. लोकान्त के स्वभाव से पुद्गल रूक्ष हो जाते हैं इसलिए जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते।'
महर्द्धिक देव लोकान्त में स्थित होकर आलोक में हाथ-पैर नहीं पसार सकता-इसका आधार पुद्गल की रूक्षता है। प्रस्तुत सूत्र में पुद्गल को आधार मानकर ही अलोक में गति न होने का प्रतिपादन किया गया है
'पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ' अभयदेवसूरि ने इसके तात्पर्यार्थ में लिखा है-जिस क्षेत्र में पुदगल
है वहीं जीवों और पुद्गलों की गति होती है। अलोक में जीव भी नहीं है पुद्गल भी नहीं हैं। वहां जीव और पुद्गल की गति नहीं होती। गति के अभाव में देव अलोक में अपना हाथ पैर नहीं पसार सकते।
शरीरधारी जीव की गति पुद्गल के सहयोग के बिना नहीं हो सकती। यह प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट है। अजीव की गति भी पुद्गल के आश्रय से होती है, यह विमर्शयोग्य तथ्य है। पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त हैं। क्या इस आधार पर इस सिद्धांत की स्थापना की गई है-जिस क्षेत्र में पुद्गल हैं वहीं पुद्गलों की गति होती है। पुद्गलों का आश्रय लेकर पुद्गलों की गति होती है। इस सिद्धांत की व्याख्या कुछ और अधिक अपेक्षा रखती है।
जीव और पुद्गल का भोग्य और भोक्ता का संबंध है। वृत्तिकार ने उस स्वभाव का उल्लेख 'पुद्गल जीव के अनुगामी स्वभाव वाले हैं। के रूप में किया है। जीव उन पुद्गलों का आहार, शरीरावयव और शरीर के रूप में उपचय करता है।'
१२०. सेवं भंते ! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
१२०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
१. ठाणं १०/१॥ २. भ. वृ. १६/११८-११६ : इदमुक्तं भवति-यत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव जीवानां
पुदगलानां च गतिर्भवति एव चालोके नैव सन्ति जीवाः नैव च सन्ति पुद्गलाः
इति जीवपुद्गलानां गति स्ति। तदभावाचालोके देवो हस्ताद्यकुष्टयितुं
प्रसारयितुं वा न प्रभुरिति। ३. भ. वृ. १६/११८-११६।
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