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________________ श. १३ : उ. १ : सू. ४ नरक में उत्पत्ति के समय द्रव्येन्द्रियां नहीं होती, इसलिए चक्षुदर्शनी उत्पन्न नहीं होते।' वृत्तिकार ने यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है वहां अचक्षु दर्शनी कैसे उत्पन्न होते हैं ? वृत्तिकार ने इसका समाधान भी प्रस्तुत किया है। यहां अचक्षु दर्शन का अभिधेय सामान्य उपयोग मात्र है इसलिए उत्पत्ति के समय वह हो सकता है। ' नरक में भव-प्रत्ययिक नपुंसक वेद है इसलिए उसमें स्त्री वेद और पुरुष वेद उपपन्न नहीं होते। उत्पत्ति के समय इन्द्रियां नहीं होती इसलिए रत्नप्रभा में संखेज्जवित्थडेसु नरएस उब्बट्टण-पदं ४. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं केवतिया नेरइया उव्वति ? केवतिया काउलेस्सा उव्व ंति जान केवतिया अणागारोवउत्ता उव्व ंति ? ११२ गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसा निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उब्बति । जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उव्वति । एवं जाव सण्णी । असण्णी न उव्व ंति। जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उव्वति । एवं जाव सुअण्णाणी । विभंगनाणी न उब्वट्टंति, चक्खुदंसणी न उब्वति । जहणणेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उब्वति । एवं जाव लोभकसाई । सोइंदियोवउत्ता न उव्वति एवं जाव फासिंदियोवउत्ता न उव्व ंति। जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उव्वति । मणजोगी न उव्वनंति, एवं वइजोगी वि । जहणणेणं एक्को वा दो वाणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उव्वहंति । एवं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता ॥ Jain Education International भगवई श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियों से उपयुक्त जीव उत्पन्न नहीं होते । गर्भावक्रमण के समय भाव इन्द्रियों का होना बतलाया गया है। द्रष्टव्य भगवई १ / ३४०, ४१। यहां भाव इन्द्रिय विवक्षित नहीं है। नरक में द्रव्य मन नहीं होता किंतु चैतन्य रूप भाव मन सदा रहता है । इस अपेक्षा से नोइन्द्रिय उपयुक्त की उपपत्ति होती है। ' १. भ. वृ. १३/३ - इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पत्तिरिति । २. वही, १३ / ३ - इन्द्रियानाश्रितस्य सामान्योपयोगमात्रस्याचक्षुदर्शनशब्दाभि उत्पत्ति के समय मनयोग और वचनयोग नहीं होता इसलिए मनोयोगी और वाग्योगी की उत्पत्ति का निषेध है। काययोग संसारी जीवों के सदा रहता है। संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु उद्वर्तन पदम अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये कियन्तः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते ? कियन्तः कापोतलेश्याः उद्वर्तन्ते यावत् कियन्तः अनाकारोपयुक्ताः उद्वर्तन्ते ? गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत्षु निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा उत्कर्षेण संख्येयाः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते । जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः कापोतलेश्याः उद्वर्तन्ते । एवं यावत् संज्ञिनः । असंज्ञिनः न उद्वर्तन्ते । जघन्येन एकः वा द्वो वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः भवसिद्धिकाः उद्वर्तन्ते। एवं यावत् श्रुतअज्ञानिनः । विभङ्गज्ञानिनः न उद्वर्तन्ते, चक्षुर्दर्शिनः न उद्वर्तन्ते। जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः अचक्षुर्दर्शिनः उद्वर्तन्ते । एवं यावत् लोभकषायिनः । श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ताः न उद्वर्तन्ते, एवं यावत् स्पर्शेन्द्रियोपयुक्ताः न उद्वर्तन्ते । जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः नोइन्द्रियोपयुक्ताः उद्वर्तन्ते। मनोयोगिनः न उद्वर्तन्ते, एवं वाग्योगिनः अपि । जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः काययोगिनः उद्वर्तन्ते । एवं साकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयुक्ताः । संख्येय विस्तृत नरकों में उद्वर्तन पद ४. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकों में कितने नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? कितने कापोत लेश्या वाले उद्वर्तन करते हैं यावत् कितने अनाकार उपयोग वाले उद्वर्तन करते हैं ? For Private & Personal Use Only गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकों में एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्ये नैरयिक उद्वर्तन करते हैं। जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येयकापोतलेश्या वाले उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् संज्ञी। असंज्ञी उद्वर्तन नहीं करते । जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय भवसिद्धिक उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् श्रुत अज्ञानी की वक्तव्यता। विभंगज्ञानी उद्वर्तन नहीं करते, चक्षुदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते । जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अचक्षुदर्शनी उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् लोभ कषाय वाले । श्रोत्रेन्द्रिय-उपयुक्तउद्वर्तन नहीं करते, इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-उपयुक्त-उद्वर्तन नहीं करते । जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः नो इन्द्रिय-उपयुक्त उद्वर्तन करते हैं। मन योग वाले उद्वर्तन नहीं करते, इसी प्रकार वचन योग वाले भी जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय काय योग वाले उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार साकार उपयोग वाले, अनाकार उपयोग वाले की वक्तव्यता । धेयस्योत्पादसमयेऽपि भावाद् अचक्षुदर्शनिनः उत्पद्यते इत्युच्यत इति । ३. वही, १३/३। www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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