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________________ १११ श. १३ : उ. १ : सू. ३ भगवई अभवसिद्धिया, आभिणिबोहियनाणी, सिद्धिकाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः, सुयनाणी, ओहिनाणी, मइअण्णाणी, श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः, मतिसुयअण्णाणी, विभंगनाणी। चक्खु- अज्ञानिनः, श्रुतअज्ञानिनः, विभङ्गदसणी न उववज्जति । जहण्णेणं एक्को ज्ञानिनः। चक्षुर्दर्शिनः न उपपद्यन्ते। वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं जघन्येन एकः वा द्वौ वा, त्रयः वा संखेज्जा अचक्खुदंसणी उववजंति, उत्कर्षेण संख्येयाः अचक्षुर्दर्शिनः एवं ओहिदंसणी वि। आहार- उपपद्यन्ते, एवम् अवधिदर्शिनः अपि। सण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोउत्ता आहारसंज्ञोपयुक्ताः अपि यावत् वि। इत्थीवेयगा न उबवज्जंति, परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः अपि। स्त्रीवेदकाः पुरिसवेयगा न उववज्जति। जहण्णेणं न उपपद्यन्ते, पुरुषवेदकाः न एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं उपपद्यन्ते। जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः संखेज्जा नपुंसगवेयगा उववज्जंति । एवं वा, उत्कर्षेण संख्येयाः नपुंसकवेदकाः कोहकसाई जाव लोभकसाई। उपपद्यन्ते। एवं क्रोधकषायिनः यावत् सोइंदियोवउत्ता न उववज्जंति, एवं जाव लोभकषायिनः। श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ताः न फासिदिओवउत्ता न उववज्जति । उपपद्यन्ते, एवं यावत् जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, स्पर्शेन्द्रियोपयुक्ताः न उपपद्यन्ते। उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदिओवउत्ता जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उववज्जति। मणजोगी न उववज्जंति, उत्कर्षेण संख्येयाः नोइन्द्रियोपयुक्ताः एवं बइजोगी वि। जहण्णेणं एक्को वा दो उपपद्यन्ते। मनोयोगिनः न उपपद्यन्ते, वा। तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा एवं वाग्योगिनः अपि। जघन्येन एकः वा कायजोगी उववज्जंति। एवं सागारो- द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः वउत्ता वि, एवं अणागारोवउत्ता वि॥ काययोगिनः उपपद्यन्ते। एवं साकारोपयुक्ताः अपि, एवम् अनाकारोपयुक्ताः अपि। श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी की वक्तव्यता। १५. चक्षुदर्शनी उपपन्न नहीं होते १६. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अचक्षुदर्शनी उपपन्न होते हैं। १७. इसी प्रकार अवधिदर्शनी भी। १८-२१. इसी प्रकार आहार संज्ञाउपयुक्त यावत् परिग्रह-संज्ञा-उपयुक्त भी। २३. स्त्रीवेदक उपपन्न नहीं होते २३. पुरुष वेदक उपपन्न नहीं होते। २४. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय नपुंसकवेदक उपपन्न होते हैं। २५-२८. इसी प्रकार क्रोध कषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले उपपन्न होते हैं। २६-३३ श्रोत्रेन्द्रिय-उपयुक्त उपपन्न नहीं होते यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयुक्त उपपन्न नहीं होते। ३४. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन उत्कृष्टतः संख्येय नोइन्द्रिय-उपयुक्त उपपन्न होते हैं। ३५-३६ मनयोग वाले उपपन्न नहीं होते। इसी प्रकार वचन योग वाले भी। ३७. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय काय योग वाले उपपन्न होते हैं। ३८-३६ इसी प्रकार साकार उपयोग वाले भी, अनाकार उपयोग वाले भी। भाष्य जा १. सूत्र ३ निरूपण है। भाव लेश्याएं देव और नरक सबमें छह होती हैं।' इस सूत्र में उनचालीस प्रश्न पूछे गए हैं। उनके उत्तर भी इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोत लेश्या वाले जीव पैदा होते हैं, इसका सूत्र में प्रदत्त हैं। तात्पर्य है कि उसमें कापोत लेश्या का निर्देश है। वहां पैदा होने कापोत लेश्या-रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोत लेश्या वाले जीव वाला जीव कापोत लेश्या के साथ ही उत्पन्न होता है। उपपन्न होते हैं, इसका तात्पर्य यह है-रत्नप्रभा में एक कापोत लेश्या जिन जीवों का संसार-भ्रमण अर्द्ध-पुद्गल परिवर्त का शेष होती है। उपपत्ति का नियम यह है-जिस गति में जीव उपपन्न होता ___ रहता है, वे शुक्लपाक्षिक हैं। जिनका इससे अधिक रहता है, वे है, अंतर्मुहर्त पहले उस गति की लेश्या हो जाती है। इसी नियम के कृष्णपाक्षिक हैं। आधार पर यह कहा जा सकता है-रत्नप्रभा में कापोत लेश्या वाले संज्ञी असंज्ञी दोनों उत्पन्न होते हैं। इस विषय में जयाचार्य ने जीव उपपन्न होते हैं। विस्तृत समीक्षा की है। उनके अनुसार विभंगज्ञान की उत्पत्ति से नरक और देवलोक में प्राप्त लेश्या द्रव्य-लेश्या है इसलिए पहले नारक जीव असंज्ञी कहलाता है। रत्नप्रभा पृथ्वी में असंज्ञी नरक में कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं बतलाई गई हैं। जीव उत्पन्न होता है, वह अंतर्मुहूर्त तक विभंगज्ञान को प्राप्त नहीं देवों में छहों लेश्याएं उपलब्ध होती हैं। यह द्रव्य लेश्याओं का करता इसलिए उसे असंज्ञी कहा गया। १. जीवा. ३/६८1 (ख) विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद १७ और उसकी वृत्ति। २. उत्तरा. वृ. (शान्त्याचार्य) प. ६६२॥ ६. भ. वृ. प. १३/३ : ३. पण्ण. १७/३७। जेसिमबहो पोग्गल परियट्टो सेस ओउ संसारो। ४. पण्ण. १७/४६,५०। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिगे पुण कण्हपरवीआ॥ ५. (क) श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ. ५०७। ७. भ. जो. ढा. २७२, गा. ३१-५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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