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श. १२ : उ. ४ : सू. ६२-६४
भगवई
४७ नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गल- नैरयिकत्वे कियन्तः औदारिकपरियट्टा ?
पुद्गलपरिवर्ताः? एवं जहा नेरइयस्स वत्तव्वया भणिया, एवं यथा नैरयिकस्य वक्तव्यता तहा असुरकुमारस्स वि भाणियब्वा भणिता, तथा असुरकुमारस्यापि जाव वेमाणियत्ते। एवं जाव थणिय- भणितव्या यावत् वैमानिकत्वे। एवं यथा कुमारस्स। एवं पुढविक्काइयस्स वि। स्तनितकुमारस्य।
एवं एवं जाव वेमाणियस्स । सम्बेसि पृथ्वीकायिकस्यापि एवं यावत् एक्को गमो ॥
वैमानिकस्य। सर्वेषाम् एकः गमः।
रूप में अतीत में कितने औदारिक पुद्गलपरिवर्त्त हुए हैं? इसी प्रकार जैसे नैरयिक की वक्तव्यता, वैसे ही असुरकुमार की वक्तव्यता यावत् वैमानिक के रूप में। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक की भी वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की भी वक्तव्यता। सबका एक ही गमक-समान वक्तव्यता है।
६२. भंते ! प्रत्येक नैरयिक के नैरयिक के रूप में
अतीत में कितने वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त हुए
१२. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स
नेरइयत्ते केवतिया वेउब्बियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? अणता। केवतिया पुरेक्खडा? एकुत्तरिया जाव अणंता वा। एवं जाव थणियकुमारत्ते॥
एकैकस्य भदन्त! नैरयिकस्य नैरयिकत्वे कियन्तः वैक्रियपुद्गलपरिवर्ताः अतीताः? अनन्ताः । कियन्तः पुरस्कृताः? एकोत्तरिकाः यावत् अनन्ता वा । एवं यावत् स्तनितकुमारत्वे।
अनंत। भविष्य में कितने होंगे? एकोत्तरिक-किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार के रूप में।
६३. पुढविकाइयत्ते-पुच्छा।
पृथ्वीकायिकत्वे-पृच्छा। नत्थि एक्कोवि।
नास्ति एकोऽपि। केवतिया पुरेक्खडा?
कियन्तः पुरस्कृताः? नत्यि एक्कोवि। एवं जत्थ वेउब्बिय- नास्ति एकोऽपि। एवं यत्र वैक्रियशरीरं सरीरं तत्थ एकुत्तरिओ, जत्थ नत्थि तत्र एकोत्तरिकः, यत्र नास्ति तत्र यथा तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा पृथ्वीकायिकत्वे तथा भणितव्यं यावत् भाणियव्वं जाव वेमाणियस्स वैमानिकस्य वैमानिकत्वे। तैजसवेमाणियत्ते।
पुद्गलपरिवर्ताः, कर्मकपुद्गलपरिवर्ताः, तेयापोग्गलपरियट्टा, कम्मापोग्गल- च सर्वत्र एकोत्तरिकाः भणितव्याः, परियट्टा य सव्वत्य एकुत्तरिया, मनःपुद्गलपरिवर्ताः सर्वेषु पञ्चेन्द्रियेषु भाणियब्वा, मणपोग्गलपरियट्टा एकोत्तरिकाः, विकलेन्द्रियेषु नास्ति। सव्वेसु पंचिदिएसु एगुत्तरिया वाक्पुद्गलपरिवर्ताः, एवं चैव, नवरम्विगलिंदिएमु नत्थि। वइपोग्गल- एकेन्द्रियेषु नास्ति भणितव्या परियट्टा एवं चेव, नवरं-एगिदिएसु आनापानपुद्गलपरिवर्ताः सर्वत्र नत्थि भाणियब्वा। आणापाणुपोग्गल- एकोत्तरिकाः यावत् वैमानिकस्य परियट्टा सव्वत्थ एकुत्तरिया जाव वैमानिकत्वे । वेमाणियस्स वेमाणियत्ते ॥
६३. पृथ्वीकायिक के रूप में-पृच्छा।
एक भी नहीं। भविष्य में कितने होंगे? एक भी नहीं। इसी प्रकार जहां वैक्रिय शरीर हैं, वहां एकोत्तरिक (सूत्र १२ की भांति), जहां वैक्रिय शरीर नहीं है वहां पृथ्वीकायिकत्व की भांति वक्तव्य है यावत् वैमानिक का वैमानिक के रूप में। तैजस पुदगल-परिवर्त्त और कर्म पुदगल-परिवर्त्त सर्वत्र (नैरयिक से वैमानिक तक) एकोत्तरिक वक्तव्य हैं। मनःपुद्गल-परिवर्त समस्त पंचेन्द्रियों में एकोत्तरिक-किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। विकलेन्द्रियों में नहीं होंगे। इसी प्रकार वचन पुद्गल-परिवर्त्त की वक्तव्यता, इतना विशेष है-एकेन्द्रियों में वक्तव्य नहीं है। आनापान पुदगल-परिवर्त्त सर्वत्र (नैरियक से वैमानिक तक चौबीस दंडकों में) एकोत्तरिक यावत् वैमानिक के वैमानिक रूप में।
१४. नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया
नैरयिकाणां भदन्त! नैरयिकत्वे कियन्तः १४. भंते ! नैरयिकों के नैरयिक के रूप में
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