________________
भगवई
२६५
श. १५ : सू. ५७-५६
तिलयंभय-पदं ५७. तए णं अहं गोयमा! अण्णया कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पबुटिकायंसि गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धिं सिद्धत्थगामाओ नगराओ कुम्मगाम नगरं संपढिए विहाराए। तस्स णं सिद्धत्थगामस्स नगरस्स कुम्मगामस्स नगरस्स य अंतरा, एत्य णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुष्फए हरियग- रेरिज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे-उबसोभेमाणे चिट्टइ॥
तिल-स्तम्भक-पदम् ततः अहं गौतम! अन्यदा कदाचित् प्रथमशरत्कालसमये अल्पवृष्टिकाये गोशालेन मंखलिपुत्रेण साधू सिद्धार्थग्रामात् नगरात् कूर्मग्राम नगरं सम्प्रस्थितः विहाराय। तं सिद्धार्थग्राम नगरं कूर्मग्राम नगरं च अन्तरा (तस्य सिद्धार्थ ग्रामस्य कूर्मग्रामस्य नगरस्य च अन्तरा), अत्र महान् एकः तिल- स्तम्भकः पत्रितः, पुष्पितः हरितकरारज्यमानः श्रिया अतीव-अतीव उपशोभमानः उपशोभमानः तिष्ठति।
तिल-स्तंभ-पद ५७. गौतम! मैं एक दिन प्रथम शरद् काल समय में अल्पवृष्टिकाल में मंखलिपुत्र गोशाल के साथ सिद्धार्थ ग्राम नगर से कूर्म ग्राम नगर की
ओर विहार के लिए संप्रस्थित हुआ। उस सिद्धार्थ ग्राम नगर और कूर्म ग्राम नगर के बीच में एक बड़ा तिल का पौधा पत्र-पुष्पयुक्त, हरा-भरा और विशिष्ट आभा से बहुत-बहुत उपशोभायमान खड़ा था।
५८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तं ५८. मंखलिपुत्र गोशाल ने उस तिल के पौधे को तिलथंभगं पासइ, पासित्ता मम बंदइ तिलस्तम्भकं पश्यति, दृष्ट्वा मां देखा, देखकर मुझे वंदन-नमस्कार किया, नमंसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! एस णं भते! तिलयंभए किं निष्फजिस्सइ एवमवादीत्-एषः भदन्तः! तिलस्तम्भं यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं नो निष्फज्जिस्सइ? एए य सत्त तिल- किं निष्पत्स्यते नो निष्पत्स्यते? एते च होगा? इस पौधे पर लगे सात फूलों के जीव पुष्फजीवा उदाइत्ता-उदाइत्ता कहिं सप्त तिलपुष्पजीवः उद्रुत्य उद्दुत्य ___मर कर कहां जाएंगे? कहां उपपन्न होंगे? गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? कुत्र गमिष्यन्ति? कुत्र उपपत्स्यन्ते? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलिपुत्तं ततः अहं गौतम! गोशालं मंखलिपुत्रम् गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार एवं बयासी-गोसाला! एस णं तिलथंभए एवमवादीत्-गोशाल! एषः तिल- कहा-गोशाल! यह तिल का पौधा निष्पन्न निष्फज्जिस्सइ, नो न निष्फज्जिस्सइ। स्तम्भक: निष्पत्स्यते, नो न निष्पत्स्यते। होगा; निष्पन्न नहीं होगा, ऐसा नहीं है। इस एते य सत्ततिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता- एते च सप्ततिलजीवाः उद्रुत्य- पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मर कर इसी उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए उद्रुत्य एतस्य चैव तिलस्तम्भकस्य पौधे की एक तिल फली में पुनः उपपन्न होंगे। तिलसंगलियाए सत्त तिला एकस्यां तिलसंगलियाए सप्त तिलाः पच्चायाइसंति॥
प्रत्याजनिष्यन्ते।
५६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं ततः सः गोशालः मम एवम् आचक्षाणस्य
आइक्खमाणस्स एयमह नो सद्दहइ, नो एतमर्थं नो श्रद्दधते नो प्रत्येति, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयमढं असद्दहमाणे, रोचते, एतमर्थम् अश्रद्दधानः अप्रतियन् अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, ममं पणिहाए अरोचमानः मां प्रणिधाय 'अयं मिथ्या'अयं णं मिच्छावादी भवउ' त्ति कट्ट ममं वादी भवतु' इति कृत्वा मम अन्तिकात् अंतियाओ सणियं-सणियं पच्चोसक्कर, शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य पच्चोसक्कित्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव यत्रैक: सः तिल-स्तम्भकः तत्रैव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं तिलथंभगं उपागच्छति, उपागम्य तं तिलस्तम्भकं सलेट्ठयायं चेव उप्पाडेड, उप्पाडेता एगते सलेष्टुकं चैव उत्पाटयति, उत्पाट्य एडेड। तक्रवणमेत्तं च णं गोयमा! दिवे एकान्ते एडयति। तत्क्षणमात्रं च अभवद्दलए पाउम्भूए। तए णं से दिब्वे गौतम! दिव्यः अभ्रबार्दलकः प्रादुर्भूतः। अन्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, ततः सः दिव्यः अभ्रबार्दलकः क्षिप्रमेव खिप्पामेव पविज्जुयाति, खिप्पामेव प्रतनतनायति, क्षिप्रमेव विद्योतते, नच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं क्षिप्रमेव नात्युदकं नातिमृत्तिकां प्रविरलरयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं प्रपृषत्कं रजःरेणु-विनाशनं दिव्यं वासति, जेण से तिलथंभए आसत्थे सलिलोदकं वर्षां वर्षति, यत्र सः
६. मंखलिपुत्र गोशाल ने जो मैंने कहा, उस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, इस अर्थ पर अश्रद्धा करता हुआ,अप्रतीति करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मुझे संकल्पित कर 'यह मिथ्यावादी हो' यह सोचकर मेरे पास से शनैः शनैः पीछे सरक गया, पीछे सरक कर जहां तिल का पौधा था, वहां आया, आकर उस तिल के पौधे को जड़ की मिट्टी-सहित उखाड़ा, उखाड़कर एकांत में फेंक दिया। गौतम! उसी क्षण आकाश में दिव्य बादल घुमड़ने लगा। वह दिव्य बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गरजने लगा, शीघ्र ही बिजली चमकने लगी, शीघ्र वर्षा शुरू हो गई। न अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ। रजों और धूलिकणों को जमाने वाली दिव्य बूंदाबांदी हुई। उससे तिल
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International