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श. १५ : सू. ५६
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भगवई
हुआ।' इस अनार्य भूमि में भगवान को वर्षावास में भी कोई मकान या बना हुआ आवास प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने वहां अनियतवास किया। यह प्रवास उद्यानादि' में होने से उसे 'पणियभूमि' कहा गया है। इस आधार पर यहां पणियभूमि का तात्पर्य है-वह रमणीक भूमि, जो प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण 'प्रणीत' अर्थात् मनोरम दिखाई देती है।
'पणियभूमि' या 'पणियसाला' का अर्थ 'पण्य-भूमि' यानी 'क्रय-विक्रय शाला' अथवा 'दुकान' भी होता है, जहां भगवान् महावीर ने कभी-कभी प्रवास किया था। पर यहां यह अर्थ संगत नहीं लगता।
सरवदे, सिद्धत्थपुरं गता.....' अर्थात्-भगवान् ने अनार्य देश से आश्विन मास में निष्क्रमण किया था। इस प्रकार भगवान् का नवां चातुर्मास वजभूमि में हुआ, जिसे पर्युषणाकल्प में 'पणियभूमि' कहा गया है।
अब यह विमर्शनीय है कि भगवान् ने छह वर्ष तक अनित्य जागरिका की या छह मास तक?' उपर्युक्त प्रमाणों से प्रतीत होता है कि भगवान ने अनित्य जागरिका का प्रयोग लगातार छह मास ही किया था, छह वर्ष तक नहीं। दूसरी बात है कि भगवान् महावीर गोशालक के साथ छह वर्ष पणियभूमि में रहे-यह भी कैसे संभव हो सकता है? जबकि पर्युषणाकल्प में पणियभूमि (यानी अनार्य-भूमि) में वर्षावास बिताया था। कुल मिलाकर चैत्र से भाद्रव तक छह मास ही वहां रहे थे तथा आश्विन में वहां से निर्गमन कर पुनः आर्य क्षेत्र में आ गए थे।
जहां तक भगवान् महावीर का गोशालक के साथ रहने का प्रश्न है, तो वह काल भी आठ वर्ष से कुछ अधिक का होता है। महावीर के साधना काल के तीसरे वर्ष से दसवें वर्ष के चातुर्मास से पूर्व तक गोशालक उनके साथ रहा, यह आवश्यक चूर्णि के वृत्तान्त से स्पष्ट होता है। इस दृष्टि से भी 'छह वर्ष' का उल्लेख संगत नहीं लगता। (महावीर और गोशालक के सहवास का समग्र काल कब से कब तक था, इस विषय में विस्तार से इसी शतक के सूत्र १४१,१४२ के भाष्यों में प्रकाश डाला गया है।)
२. छह वर्ष (छव्वासाइं) यह पाठ चिन्तनीय है। आचारांग चूर्णि एवं आवश्यक चूर्णि के
के आधार पर (देखें, ऊपर का भाष्य) यह समय छह वर्ष न होकर 'छह मास' है।
प्रस्तुत सूत्र (भग. १५५६) में बताया गया है कि भगवान् महावीर ने छह वर्ष तक 'अनित्य जागरिका' का प्रयोग किया। इसी संदर्भ में आवश्यक चूर्णि में है कि 'तत्थ य छम्मासे अणिच- जागरि विरिति आचासंग चर्णिमें भी 'ए तत्थ मासे अच्छितो भगवं।' अर्थात् वहां भगवान् छह महीने रहे। आचारांगवृत्ति (पत्र २८२) में भी 'तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधिं कालं स्थितवानिति।' आवश्यक चूर्णि के अनुसार-'ततो निग्गया पढम
१. आव. चू., पूर्वभाग, पृष्ठ २९६
'गोभूमि वज्जलाढेत्ति गोवकोहे य वंसि जिणुदसमो। रायगिहऽहमवासं भवज्जूमी बहुवसम्गा॥४६१ ततो विहरंतो सामी गोभूमी वचति, तत्थ अंतरा अडविधणं, सदा गाबीओ चरंति तेण गोभूमी। तत्थ गोसालो गोवालए भणति-अरे वज्जलाढा। एस पंथो कहिं वचति?, वज्जलाढा णाम मेकच्छा (मेच्छा), ताहे ते गोवा भणंति-कीस अक्कोसासि? सो भणति-असुगए सुयपुत्ता सुट्ट अक्कोसामि, तुडभे एरिसगा मेच्छा, ताहे तेहिं मिलित्ता पिट्टिऊण बंधित्ता वंसीसु छूढो, तत्थ अन्नेहिं पुणो मोइतो अणुकंपाए, ततो विहरंता रायगिहं गता। तत्थ अट्टमं वासारतं चाउम्मासखमणं, विचित्ते य अभिग्गहे, बाहिं पारिता सरदे समतीए दिद्रुतं करेति, सामी चिंतेति-बहुं कम्मं 'ण' सक्का णिज्जरेउं, ताहे सतेमेव अत्थारियदिटुंतं पडिकप्पेति, जहा एगस्स कुडंबियस्स साली लाता, ताहे सो कप्पडियपंथिए भणति-तुभं हियच्छितं भत्तं देमि मम लुणह, पच्छा भे जहासुहं वचह, एवं सो ओवातेण लुणावेति, एवं चेव ममेवि बहुं कम्मं अच्छति, एतं तऽच्छारिएहिं णिज्जरावेयव्वंति अणारियदेसेसु, ताहे लाढावज्जभूमिं सुद्धभूमिं च वचति। ते णिरणुकंपया णिद्दया य, तत्थ विहरितो, तत्थ सो अणारिओ जणो हीलति निंदति जह बंभचेरेसु 'छुच्छुक्करेंति आहंसु समणं कुक्कुरा दंसतु' त्ति एवमादि, तदा य किर वासारतो तंभि जणवए केणइ दखनिओगेण लेहट्ठो आसी वसहीवि न लब्भति। एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो भगवं।
तत्थ य छम्मासे अणिचजागरियं विहरति। तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान्
षण्मासावधिं कालं स्थितवानिति। एस नवमो वासारत्तो। २. (क) आ. चू., पूर्वभाग, पृष्ठ २६७-'अणियतवासं सिद्धत्थपुर.........।' (ख) श्रमण महावीर पृ. ३७-'भगवान् महावीर आहार-पानी लेने के
लिए गांव में जाते थे। छह मासिक प्रवास में वे वर्षावास बिताने के लिए गांव में गये। कहीं भी कोई स्थान नहीं मिला। उन्होंने
वह वर्षावास इधर-उधर घूमकर, पेड़ों के नीचे बिताया।' ३. (क) दस. चूलिका, २/५, हारिभद्रीय टीका, पत्र २८०-अनियत-वासो
मासकल्पादिना 'अनिकेतवासो वा' अगृहे उद्यानादौ वासः। (ख) दस. चू., जिनदासकृत, पृ. ३७०-'अणिएवासो' त्ति निकेतं-घरं
तमि ण वसियव्वं, उज्जाणाइ वासिणा होयव्वं । ४. आयारो, ६/२/२
'आवेसण-सभा-पवासु, पणियसालासु एगदा वासो।
अदुवा पलियट्ठाणेसु, पलालपुंजेसु एगदा वासो॥ ५. आचारांगभाष्यम्, पृ. ४३२। ६. यह अधिक संभव है कि अनित्य जागरिका का प्रयोग अनार्य भूमि में
छह मास के प्रवास में गोशालक के साथ रहते हुए भगवान ने किया। छह वर्ष (छब्वासाइं) का पाठ 'छम्मासाई' के स्थान में लिपिदोष के कारण हो गया हो, ऐसा संभव हैं।
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