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श. १५ : सू. १४२
भगवई का उल्लेख है, जबकि अन्य अधिक-से-अधिक पांचवें स्वर्ग तक ही जानकारियों से विपरीत ही प्रमाणित होता है, अर्थात् मैं कहना रह गये हैं।
चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर इतिहासकार प्रयत्नशील होते आजीवकों की भिक्षाचरी-विधि जो अपने आपमें विशिष्ट-सी हैं तो उन्हें कहना ही होगा कि उन दोनों में एक दूसरे का कोई ऋणी थी, उसकी चर्चा 'आमुख' में की जा चुकी है।'
है तो वास्तव में गुरु ही ऋणी है, न कि जैनों द्वारा माना गया उनका भगवती में आजीवक उपासकों के आचार-विचार का ढोंगी शिष्य।'' डॉ. बरुआ ने अपनी धारणा की पृष्ठभूमि में यह भी श्लाघात्मक ब्यौरा मिलता है। वहां बताया गया है-'वे गोशालक को माना है-"महावीर पहले तो पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किन्तु एक वर्ष अरिहन्त देव मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं, गूलर, बड़, बाद जब वे अचेलक हुए, तब आजीवक पंथ में चले गए। इसके बोर, अंजीर व पाकर (प्लक्ष या पिलक्खु)-इन पांच प्रकार के फलों साथ-साथ डॉ.बरुआ ने इस आधार को ही अपने पक्ष में गिनाया है का भक्षण नहीं करते, पलांडु (प्याज), लहसुन आदि कन्द-मूल का कि गोशालक भगवान महावीर से दो वर्ष पूर्व जिन पद प्राप्त कर चुके भक्षण नहीं करते, बैलों को निर्लेछन नहीं कराते, उनके नाक-कान थे। यद्यपि डॉ. बरुआ ने यह भी स्वीकार किया है कि ये सब का छेदन नहीं कराते व त्रस-प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार नहीं कल्पना के ही महान् प्रयोग हैं; तो भी उनकी उन कल्पनाओं ने करते।
किसी-किसी को अवश्य प्रभावित किया है। तदनुसार उल्लेख भी बौद्ध त्रिपिटकों में उल्लिखित 'अभिजातियों' (लेश्याओं) किया जाने लगा है और वह उल्लेख भी द्विगुणित होकर। गोपालदास का आजीवकों द्वारा किये गये वर्गीकरण में निग्रंथों को चतुर्थ जीवाभाई पटेल लिखते हैं-"महावीर और गोशालक छह वर्ष तक श्रेणी, आजीवकों और उनके अनुयायी-गण को पंचम श्रेणी तथा एक साथ रहे थे; अतः जैन सूत्रों में गोशालक के विषय में विशेष नन्द वत्स, कृश सांकृत्य और मक्खली गोशाल को षष्ठ श्रेणी परिचय मिलना ही चाहिए। भगवती, सूत्रकृतांग, उपासकदसांग आदि में रखा गया है'; यह भी बताता है कि आजीवकों ने अपने से सूत्रों में गोशालक के विषय में विस्तृत या संक्षिप्त कुछ उल्लेख मिलते दूसरा स्थान अचेलक निग्रंथों को ही दिया है। यह इस तथ्य की हैं। किन्तु उन सबमें गोशालक को चरित्र-भ्रष्ट तथा महावीर का एक
ओर इंगित करता है कि इन दोनों संप्रदायों में परस्पर में कितना शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न किया गया लगता है कि सामीप्य था।
सामान्यतया ही उन उल्लेखों को आधारभूत मानने का मन नहीं रह अब हमें उन धारणाओं पर चिन्तन करना होगा, जिनमें कुछ। जाता। गोशालक के सिद्धांत को यथार्थ रूप से रखने का यथाशक्ति विद्वानों ने अपनी कल्पित मान्यताओं के आधार पर यह बताने की प्रयत्न वेणीमाधव बरुआ ने अपने ग्रंथ में किया है।" कोशिश की है कि महावीर और गोशालक के बीच 'गुरु-शिष्य' के धर्मानन्द कोशम्बी प्रभृति ने भी इसी प्रकार का आशय व्यक्त संबंध का जो उल्लेख भगवती के पन्द्रहवें शतक में हुआ है, वह किया है। लगता है, इस धारणा के मूल उन्नायक डॉ. हर्मन जेकोबी सांप्रदायिक भावना से अभिप्रेरित है और वास्तविकता शायद इससे रहे हैं। तदनन्तर अनेक लोग इस पर लिखते ही गये। बिल्कुल विपरीत है।
डॉ. बाशम आजीवकों के इतिहास और सिद्धांत के मर्मज्ञ एवं इतिहास और शोध के क्षेत्र में तटस्थता आये, यह नितांत ख्यातिप्राप्त विशेषज्ञ माने जाते हैं। उनके ग्रंथ 'हिस्ट्री एण्ड डॉक्ट्रीन्स अपेक्षित है। साम्प्रदायिक व्यामोह इस क्षेत्र से दूर रहे, यह भी ऑफ आजीविकास' को इस दृष्टि से भारतीय विद्या के क्षेत्र में बहुत अनिवार्यतः अपेक्षित है। पर तटस्थता और नवीन स्थापना भी महत्त्व दिया गया है, किन्तु कुछ मूलभूत त्रुटियों के कारण उनके भयावह हो जाती है, जब वे एक व्यामोह का रूप ले लेती है। मंतव्यों को सर्वग्राह्य नहीं कहा जा सकता। पूर्व भाष्यों में स्पष्ट किए गोशालक के संबंध में विगत वर्षों में गवेषणात्मक प्रवृत्ति बढ़ी है। गए तथ्यों एवं तिथियों के संदर्भ में डॉ. बाशम के आनुमानिक आजीवक मत और गोशालक पर पश्चिम और पूर्व के विद्वानों ने निर्णयों की समीक्षा की जाए तो ज्ञात होगा कि इतिहास के क्षेत्र में बहुत कुछ नया भी ढूंढ निकाला है। पर खेद का विषय है कि नवीन ऐसे निष्कर्ष स्वीकृत नहीं किए जा सकते। स्थापना के व्यामोह में कुछ एक विद्वान् गोशालक संबंधी इतिहास कुछ आधारों को हम सही मान लें और बिना किसी हेतु के ही को मूल से ही औंधे पैर खड़ा कर देना चाह रहे हैं। डॉ. वेणीमाधव कुछ एक को असत्य मान लें; यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती। बरुआ कहते हैं-"यह तो कहा ही जा सकता है कि जैन और बौद्ध वे आधार निर्हेतुक इसलिए भी नहीं माने जा सकते कि जैन और बौद्ध परम्पराओं से मिलने वाली जानकारी से यह प्रमाणित नहीं हो दो विभिन्न परम्पराओं के उल्लेख इस विषय में एक दूसरे का समर्थन सकता कि जिस प्रकार जैन गोशालक को महावीर के दो ढोंगी करते हैं। डॉ. जेकोबी ने भी तो परामर्श दिया है-"अन्य प्रमाणों के शिष्यों में से एक ढोंगी शिष्य बताते हैं; वैसा वह था। प्रत्युत उन अभाव में हमें इन कथाओं के प्रति सजगता रखनी चाहिए।"११ १. भ. १५/आमुख।
७. वही, पृ.२१॥ २. भ. श. ८/२४२
5. Pre-Buddhistic Indian Philosophy, pp. 297-318. ३. अंगुत्तरनिकाय, ६-६-५७: संयुत्तनिकाय, २४-७-८ के आधार पर। ६. महावीर स्वामी नो संयम धर्म (सूत्रकृतांग का गुजराती अनुवाद), पृ. ३४ । ४. The Ajivikas, J.D.L., vol. II. 1920, pp. 17-18.
90. S. B. E., Vol. XLV, Introduction, pp. XXIX to XXXII. ५. वही, पृ. १८॥
११. bid, p.XXXIII. ६. वही, पृ.१८॥
डा.बाश
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