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भगवई
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श. १५ : सू. १४२ भी जब स्वयं तीर्थंकर विद्यमान थे, गोशालक जैसा पाखण्डी निष्कर्ष निकाले जा सके। अभी तक किए गए प्रयत्नों की एक व्यक्ति अधिक लोकप्रिय बन गया था। भगवान् महावीर के संक्षिप्त समीक्षा यहां की जा रही है। अनुयायियों की संख्या केवल एक लाख गुणसठ हजार (१५६०००) गोशालक के सिद्धांत व विचार कुछ भी रहे हों, यह तो थी, जबकि गोशालक के अनुयायी ग्यारह लाख इकसठ हजार निर्विवाद ही है कि वे उस समय के एक बहुजन-मान्य और ख्याति(११६१०००) थे।"
लब्ध धर्म-नायक थे। इनका धर्म-संघ भगवान महावीर के धर्म-संघ प्रश्न होता है वे चरित्र, संयम व साधना की दृष्टि से बुद्ध व से भी बड़ा था, यह जैन परम्परा भी मानती है।" महावीर के दस महावीर जितने ऊंचे नहीं थे फिर भी आजीवक संघ इतना विस्तृत श्रावकों की तरह इनके भी बारह प्रमुख श्रावक थे। बुद्ध का यह कैसे हो सका? इसके संभावित कारण हैं-ज्यौतिष-विद्या या कथन भी कि 'वह मछलियों की तरह लोगों को अपने जाल में भविष्य-सम्भाषण व कठोर तपश्चर्या। महावीर व बुद्ध के संघ में फंसाता है' गोशालक के प्रभाव को ही व्यक्त करता है। निमित्त-सम्भाषण वर्जित था। गोशालक व उनके सहचारी इस दिशा गोशालक की श्रमण-परम्परा को त्रिपिटकों में 'आजीवक' में उन्मुक्त थे। पार्श्वनाथ के पार्श्वस्थ भिक्षु मुख्यतया निमित्त तथा आगमों में 'आजीविक' कहा गया है। दोनों ही शब्द एकार्थक सम्भाषण से ही आजीविका चलाते थे।' गोशालक को निमित्त से ही हैं। लगता है, प्रतिपक्ष के द्वारा ही यह नाम निर्धारण हुआ है। सिखलाने वाले भी उन्हीं में से थे और वे ही उनके मुख्य सहचर थे। आजीवक व आजीविक शब्द का अभिप्राय है-आजीविका के लिए तपश्चर्या भी आजीवक संघ की उत्कट थी। जैन आगम इसका मुक्त ही तपश्चर्या आदि करने वाला।६ आजीवक स्वयं इसका क्या अर्थ समर्थन करते हैं। बौद्ध निकाय भी गोशालक के तपोनिष्ठ होने की करते थे, यह कहीं उल्लिखित नहीं मिलता। जैन आगमों की तरह सूचना देते हैं। गवेषकों की सामान्य धारणा भी इसी पक्ष में है। बौद्ध पिटकों में भी उनकी भिक्षाचरी-नियमों के कठोर होने का आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार आजीवक पंचाग्नि तपते थे। उत्कटुक उल्लेख है। मज्झिमनिकाय के अनुसार उनके बहुत सारे नियम रहते थे। चमगादड़ की भांति हवा में झूलते थे। उनके इस कष्ट-तप निग्रंथों के समान और कुछ एक नियम उनसे भी कठोर थे। के कारण ही समाज में इनका मान था। लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न गोशालक का संसार-शुद्धिवाद आगमों और त्रिपिटकों में आदि का फल इनसे पूछते थे।'
बहुत समानता से उपलब्ध होता है। चौरासी लाख महाकल्प का बहुत सारी त्रुटियों के रहते हुए भी गोशालक का समाज में परिमाण आगमों की सुस्पष्ट व्याख्या से मिलता है। डॉ. बाशम' ने आदर पा जाना इसलिए अस्वाभाविक नहीं है कि तप और निमित्त इन सारे विषयों पर बहुत विस्तार से लिखा है। दोनों ही भारतीय समाज के प्रधान आकर्षण सदा से रहे हैं।
जैन और आजीवकों के अधिकांश प्रसंग पारस्परिक भर्त्सना ___ इतिहास की दृष्टि से जिन विद्वानों ने गोशालक एवं के सूचक हैं, वहां कुछ एक विवरण दोनों के सामीप्य-सूचक भी हैं। आजीवक-सम्प्रदाय के संबंध में शोध-कार्य किया है, उनमें हर्नले, उसका कारण दोनों के कुछ एक आचारों की समानता हो सकती ई. लायमान', ए. एल. बाशम", डब्ल्यू. शूबिंग", वेणी माधव है। नग्नत्व दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। दोनों परम्पराओं ने इन बरूआ, जोसेफ डेल्यू आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। समग्र दृष्टि विशेषताओं को लेकर ही अन्य धार्मिकों की अपेक्षा एक दूसरे को से इन सबका मूल्यांकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने जो श्रेष्ठ माना है। जैन आगम बतलाते हैं-तापस ज्योतिष्क तक, अभिमत या धारणाएं प्रस्तुत की हैं, वे अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। कांदर्पिक सौधर्म तक, चरक परिव्राजक ब्रह्मलोक तक, किल्विषिक गोशालक के जीवन एवं आजीवकों के सिद्धांतों के विषय में और लांतक कल्प तक, तिर्यंच सहस्रार कल्प तक, आजीवक व अधिक निष्पक्ष, पूर्वाग्रह-रहित एवं सर्वांगीण अनुशीलन, चिन्तन एवं आभियोगिक अच्युत कल्प तक, दर्शन-भ्रष्ट वेषधारी नवम ग्रैवेयक अनुसंधान की अपेक्षा है, जिससे ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तक जाते हैं। यहां आजीवकों के मरकर बारहवें स्वर्ग तक पहुंचने १. निशीथ सू., उ. १३-६६; दस. सू., अ. ८, गा. ५०।
१२. Jozef Deleu, Viyahapannatti (Bhagavai), pp. 214-220. २. विनयपिटक, चुल्लवग्ग, ५-६-२।
१३. कल्पसूत्र, सू. १३६ ३. आवश्यक चूर्णि, पत्र २७३: त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, श्लोक १४. भ., शतक ८, उद्देशक ५। १३४-३५; तीर्थंकर महावीर, भा. २, पृ. १०३।।
१५. भ. वृ., १/११३; जैनागम शब्द संग्रह, पृ. १३४; Hoernle, Ajivikas ४. ठाणं सूत्र, ठा. ४, उ. २, सू. ३०६ : आजीवियाणं चउबिहे तवे पं. in Encyclopaedia of Religions and Ethics; E. J. Thomas, Life तं.-उग्ग तवे घोर तवे रसणिज्जूहणता जिभिंदियपडिसंलीणता।--
of Buddha, p.130. ५. संयुत्तनिकाय १०, नाना तित्थिय सुत्त।
१६. महासचक सुत्त, १-४-६॥ ६. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ. ४।
90. The History and Doctrines of Ajivakas. 6. A. F. R. Hoernle, Uvasagdasao, Appendices I,II.
१८.भ. १/११३ : तापस-स्वतः गिरे हुए पत्तों का भोजन करने वाले साधुः ८. E. Leumann, WZKM. pp. 328-350, 1889.
कान्दर्पिक-परिहास और कुचेष्टा करने वाले साधु; E. A. L. Basham, History and Doctrines of the Ajivikas, A चरक परिव्राजक-डाका डालकर भिक्षा लेने वाले त्रिदण्डी तापस; ____Vanished Indian Religion. 2002.
किल्विषिक-चतुर्विध संघ तथा ज्ञानादिक के अवगुण बोलने वाले साधु; १०. W. Schubring, ZDMG 104 (1954), pp. 256-263.
आभियोगिक-विद्या, मंत्र, वशीकरण आदि अभियोग-कार्य करने वाले ११. B. M. Barua, Pre-Buddhistic Indian Philosophy, Calcutta, साधुः 1921.
दर्शन-भ्रष्ट-निवव।
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