SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ भगवई श. १५ : सू. १४२ पहेसु आकट्ट-विकदि करेमाणा णीयं- पथेषु आकर्ष-विकृष्टिं कुर्वन्तः नीचैःणीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा नीचैः शब्देन उद्घोषयन्तः- उद्घोषएवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! गोस- यन्तः एवमवादिषु-नो खलु देवानुले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव प्रियाः! गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः विहरिए। एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते जिनप्रलापी यावत् विहृतः। एषः समणधायए जाव छउमत्ये चेव कालगए। गोशालः चैव मंखलिपुत्रः श्रमणघातकः समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी यावत् छद्मस्थः चैव कालगतः। श्रमणः भगवान् महावीरः जिन: जिनप्रलापी जाव विहरइ-सवह-पडिमोक्खणगं यावत् विहरति, शपथ-प्रतिमोचनकं करेंति,करेत्ता दोचं पिं पूया-सक्कार (पडिमोक्खणगं) कुर्वन्ति, कृत्वा द्विः थिरीकरणट्ठयाए गोसालस्स मंखलि अपि पूजा-सत्कार-स्थिरीकरणार्थाय पुत्तस्स वामाओ पादाओ सुंबं मुयंति, गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य वामात् पादात् मुइत्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभका- शम्बं मञ्चन्ति मक्त्वा हालाहलायाः रावणस्स 'दुवार-वयणाई' अवगुणति, कम्भकार्याः कुम्भकारापणस्य 'द्वारअवंगुणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वदनानि' 'अवंगणंति' 'अवंगुणित्ता' सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेति, तं गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकं चेव जाव महया इडिसक्कारसमदुएणं सुरभिणा गन्धोदकेन स्नान्ति, तत् चैव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स यावत् महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन नीहरणं करेंति॥ गोशालस्य मंखलिपत्रस्य शरीरकस्य निर्हरणं कुर्वन्ति। गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं था, यावत् विहरण किया। यही मंखलिपुत्र गोशाल है, श्रमण घातक यावत् छद्मस्थ-अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी है यावत् विहरण कर रहे हैं। शपथ-प्रतिमोचन करते हैं, करके दूसरी बार भी पूजा, सत्कार और स्थिरीकरण के लिए मंखलिपुत्र गोशाल के बाएं पैर से रज्जु को मुक्त किया, मुक्त कर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण के द्वार को खोला, खोल कर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को सुरभित गंधोदक से स्नान कराया, पूर्ववत् यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार, समुदय के द्वारा मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर की मरणोत्तर क्रिया की। भाष्य १. सूत्र १४२ व्यक्ति अपनी चामत्कारिक शक्तियों के बल पर अपनी तमाम ___ 'गोशालक' के जीवन-वृत्त पर इतना व्यापक और मौलिक दुर्बलताओं के बावजूद जन-चेतना को प्रभावित कर देते हैं। गोशाल प्रकाश अन्यत्र किसी प्राचीन ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। बौद्ध के विषय में उपलब्ध प्रमाण जो जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध त्रिपिटकों में विकीर्ण रूप से मक्खली गोशाल की चर्चाएं हैं तथा साहित्य में संवादी रूप में मिलते हैं उसके अनाध्यात्मिक और निम्न अन्य जैन ग्रंथों में भी हमें कुछ महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है, परन्तु स्तरीय व्यक्ति को उजागर कर रहे हैं। बुद्ध तत्कालीन मतों व मतप्रस्तुत शतक में व्यवस्थित और श्रृंखलाबद्ध रूप में गोशालक के प्रवर्तकों में आजीवक संघ और गोशालक को सबसे बुरा समझते थे। जीवन, दर्शन, मान्यताओं एवं व्यक्तित्व के विधायक-निषेधात्मक सत्पुरुष और असत्पुरुष का वर्णन करते हुए वे कहते हैं-'कोई दोनों पक्षों पर जो मार्मिक प्रकाश डाला गया है, वह अन्यत्र नहीं व्यक्ति ऐसा होता है जो कि बहुत जनों के अलाभ के है तथा भारतीय विद्या के प्रत्येक जिज्ञासु विद्वान एवं विद्यार्थी के लिए होता है, बहुत जनों की हानि के लिए होता है, बहुत जनों के लिए बहुत ही उपयोगी है। दुःख के लिए होता है, वह देवों के लिए भी अलाभकारक पता नहीं क्यों इन महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उल्लेखों की और हानिकारक होता है; जैसे-मक्खली गोशाल। गोशाल 'भारतीय इतिहास' के लेखकों द्वारा या तो उपेक्षा हई है या उन्हें से अधिक दुर्जन मेरी दृष्टि में कोई नहीं है। जैसे धीवर मछलियों को किंचित् विकृत रूप देकर प्रस्तुत किया गया है। जाल में फंसाता है, वैसे वह मनुष्यों को अपने जाल में फंसाता है।' तटस्थ विद्वानों द्वारा भगवान महावीर के व्यक्तित्व को एक प्रसंगान्तर से बुद्ध यह भी कहते हैं-'श्रमणधर्मों में सबसे निकृष्ट महान् आदर्श के रूप में बताया गया है तथा उस संदर्भ में उक्त और जघन्य मान्यता गोशाल की है, जैसे कि सब प्रकार घटना की समीक्षा की गई है। अन्य कुछ विद्वानों ने समग्र घटना को के वस्त्रों में मनुष्यों के केश की कम्बल। वह कंबल शीतकाल साम्प्रदायिक टकराव के रूप में ग्रहण किया है तथा प्रस्तुत प्रकरण में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुर्गंध, दुःस्पर्श वाली को भी उसी नजरिये से देखने की कोशिश की है। वस्तुस्थिति यह है होती है। जीवन-व्यवहार में ऐसा ही निरुपयोगी गोशाल का कि गोशालक के समग्र जीवन को ध्यान में रख कर यदि समीक्षा की नियतिवाद है। जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार पाखण्ड रचने वाले इस प्रसंग में आचार्य भिक्षु ने बताया है कि 'उस युग में १. जैसे-दीघनिकाय, सामअफलसुत्त। ३. अंगुत्तर निकाय, १-१८-४:५। २. जैन आगम एवं अन्य ग्रंथ, जैसे ४. टीका ग्रंथों के अनुसार यह कम्बल मनुष्य के केशों से बनती है। (क) उवासगदसाओ, अ. ६,७। 4. The Book of Gradual Sayings, vol. I, p. 286. (ख आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र २८३-२६२। ६. गौसाला री चौपई, ढाल १८, गाथा १६,२०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy