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________________ भगवई ३१५ श. १५ : सू. १४३,१४४ तथारूप निराधार स्थापनाएं बहुत बार इसलिए भी आगे-से- आगे बढ़ती जाती हैं कि वर्तमान गवेषक मूल की अपेक्षा टहनियों का आधार अधिक लेते हैं। प्राकृत व पाली की अनभ्यास दशा में वे आगमों और त्रिपिटकों का सर्वांगीण अवलोकन नहीं कर पाते और अंग्रेजी व हिन्दी प्रबन्धकों के एकांगी प्रमाण उनके सर्वाधिक आधार बन जाते हैं। यह देखकर तो बहुत ही आश्चर्य होता है कि शास्त्र-सुलभ सामान्य तथ्यों के लिए भी विदेशी विद्वानों व उनके ग्रंथों के प्रमाण दिए जाते हैं। जैन आगमों के एतद्विषयक वर्णनों को केवल आक्षेपात्मक समझ बैठना भूल है। जैन आगम जहां गोशालक व आजीवक-मत की निम्नता व्यक्त करते हैं, वहां वे गोशालक को अच्युत कल्प तक पहुंचाकर, उन्हें मोक्षगामी बतला कर और उनके अनुयायी भिक्षुओं को वहां तक पहुंचने की क्षमता प्रदान कर उन्हें गौरव भी देते हैं। गोशालक के विषय में-वह गोशाला में जन्मा था, वह मंख था, वह आजीवकों का नायक था आदि बातों को हम जैन आगमों के आधार पर माने और जैनागमों की इस बात को कि वह महावीर का शिष्य था; निराधार ही हम यों कहें कि वह महावीर का गुरु था, बहुत ही हास्यास्पद होगा। यह तो प्रश्न ही तब पैदा होता, जब जैन आगम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व आजीवक शास्त्र उसके गुरु होने का उल्लेख करते; प्रत्युत स्थिति तो यह है कि महावीर के सम्मुख गोशालक स्वयं स्वीकार करते हैं कि "गोशालक तुम्हारा शिष्य था, पर मैं वह नहीं हूं। मैंने तो उस मृत गोशालक के शरीर में प्रवेश पाया है। यह शरीर उस गोशालक का है, पर आत्मा भिन्न है।" इस प्रकार विरोधी प्रमाण के अभाव में ये कल्पनात्मक प्रयोग नितांत अर्थशून्य ही ठहरते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि इस निराधार धारणा के उठते ही अनेक गवेषक विद्वान् इसका निराकरण भी करने लगे हैं।' आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म-सेवन का उल्लेख आर्द्रककुमार प्रकरण में आया है, इसे भी कुछ एक लोग नितांत आक्षेप मानते हैं। केवल जैन आगम ही ऐसा कहते तो यह सोचने का आधार बनता, पर बौद्ध शास्त्र भी आजीवकों के अब्रह्म-सेवन की मुक्त पुष्टि करते हैं। निग्गण्ठ ब्रह्मचर्यवास में और आजीवक अब्रह्मचर्यवास में गिनाए भी गए हैं। गोशालक कहते थे, तीन अवस्थाएं होती हैं-बद्ध, मुक्त और न बद्ध न मुक्त। वे स्वयं को मुक्त-कर्म-लेप से परे मानते थे। उनका कहना था, मुक्त पुरुष स्त्री-सहवास करे तो उसे भय नहीं। ये सारे प्रसंग भले ही उनके आलोचक सम्प्रदायों के हों, पर आजीवकों की अब्रह्म-विषयक मान्यता को एक गवेषणीय विषय अवश्य बना देते हैं। एक दूसरे के पोषक होकर ये प्रसंग अपने-आप में निराधार नहीं रह जाते। इतिहासविद् डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार ने गोशालक के भगवान् महावीर से होने वाले तीन मतभेदों में एक स्त्री-सहवास बताया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, आजीवकों को जैन आगमों का अब्रह्म के पोषक बतलाना आक्षेप मात्र ही नहीं है और कोई सम्प्रदाय विशेष ब्रह्मचर्य को सिद्धान्त रूप से मान्यता न दे, यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है। भारत वर्ष में अनेक सम्प्रदाय रहे हैं, जिनके सिद्धांत त्याग और भोग के सभी संभव विकल्पों को मानते रहे हैं। हम अब्रह्म की मान्यता पर ही आश्चर्यान्वित क्यों होते हैं? उन्हीं धर्म-नायकों में अजित-केशकम्बल जैसे भी थे, जो आत्मअस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। यह भी एक प्रश्न ही है कि ऐसे लोग तपस्या क्यों करते थे? अस्तु; नवीन स्थापनाओं के प्रचलन में और प्रचलित स्थापनाओं के निराकरण में बहुत ही जागरूकता और गम्भीरता अपेक्षित है। १४३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा १४३. श्रमण भगवान महावीर ने किसी एक दिन कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोयाओ कदाचित् श्रावस्त्याः नगर्याः कोष्ठकात् श्रावस्ती नगरी से कोष्ठक चैत्य से चेझ्याओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बहिया जणवयविहारं विहरइ॥ बहिः जनपदविहारं विहरति। बाहर जनपद-विहार करने लगे। भगवओ रोगायंक-पाउन्भवण-पदं भगवतः रोगातंक-प्रादुर्भवन-पदम् भगवान् के रोग-आतंक-प्रादुर्भवन-पद १४४. तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे तस्मिन् काले तस्मिन् समये १४४. उस काल और उस समय 'मेंढियग्राम' नाम नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेण्ढियग्रामं नाम नगरम् आसीत्- नाम का नगर था-वर्णक। उस मेंढिय ग्राम मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया वर्णकः। तस्य मेण्ढियग्रामस्य नगरस्य नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशिभाग। यहां उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थं णं बहिस्तात् उत्तर पौरस्त्यः दिग्भागः, 'शान कोष्ठक' नाम का चैत्य था-वर्णक साणकोट्ठए नाम चेइए होत्था-वण्णओ तत्र शाणकोष्ठक: नाम चैत्यम् आसीत्- यावत् पृथ्वी-शिला-पट्टक। उस शान कोष्ठक जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं वर्णकः यावत् पृथिवीशिलापट्टकः। चैत्य के न अति दूर और न अति निकट, एक साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूरसामंते, तस्य शाण-कोष्ठकस्य चैत्यस्य महान मालुका-कच्छ था-कृष्ण, कृष्णाभास १. डॉ. कामताप्रसाद, वीर; वर्ष ३, अंक १२-१३; चीमनलाल जयचंद शाह, of Religions and Ethics, Dr. Hoernle, p. 261. उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म, पृ. ५८ से ६१; डॉ. ए. एस. गोपानी ४. मज्झिमनिकाय, सन्दक सुत्त, २-३-६। Ajivika Sect--A New Interpretation, भारतीय विद्या, खण्ड २, पृ. ५. गोपालदास पटेल, महावीर कथा, पृ. १७७; श्रीचंद रामपुरिया, तीर्थंकर २०१-१०: खण्ड ३, पृ.४७-५६। वर्धमान, पृ. ८३॥ २. महावीर स्वामी नो संयम धर्म, पृ. ३४॥ ६. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृ. १६३। ३. Ajivakas, vol. I; मज्झिमनिकाय, भाग १, पृ. ५१४; Encyclopaedia Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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