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________________ भगवई गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं बुद्धं, दसद्धवण्णं कुसुमं निवडियं, ममं च णं विजयस्स गाहावइस्सगिहाओ पडिनिक्खममाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो अयाहिणपयाहिणं करेड़, करेत्ता ममं वंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता ममं एवं वयासी - तुब्भे णं भंते! ममं धम्मायरिया, अहणणं तुब्भं धम्मंतेवासी ॥ २६. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमहं नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि ॥ दोच्च-मासखमण-पदं ३०. तए णं अहं गोयमा ! रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता नालंदं बाहिरियं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता दोच्चं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ॥ ३१. तए णं अहं गोयमा ! दोच्चमासखमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता नालंद बाहिरियं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविट्ठे ॥ ३२. तए णं से आणंदे गाहावई ममं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्ठ चित्तमादिए दिए पी मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अभुत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करेत्ता अंजलिमउलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अगच्छत्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण Jain Education International २५५ विजयस्य 'गाहावइस्स' गृहे वसुधारां वृष्टां दशार्धवर्णं कुसुमं निपतितं मां च विजयस्य 'गाहावइस्स' गृहात् प्रतिनिष्क्रान्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य मां त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा माम् एवमवादीत्-यूयं भदन्त ! मम धर्माचार्याः, अहं तव धर्मान्तेवासी । ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थं नो आद्रिये, नो परिजानामि, तुष्णीकः सन्तिष्ठते । द्वितीय- मासक्षपण-पदम् ततः अहं गौतम ! रागृहात् नगरात् प्रतिनिष्क्रामामि प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दां बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निर्गत्य यत्रैव तन्तुवायशाला तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य द्वितीयं मासक्षपणम् उपसम्पद्य विहरामि । ततः अंह गौतम! द्वितीयमासक्षपणपारणके तन्तुवायशालायाः प्रतिनिष्क्रामामि प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दां बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निर्गत्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य राजगृहे नगरे उच्च-नीच - मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् आनन्दस्य गाहावइस्स गृहम् अनुप्रविष्टः । ततः सः आनन्दः 'गाहावई' माम् आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्ह्रदयः क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुंचति, अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं करोति कृत्वा अंजलिमुकुलितहस्तः माम् सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, For Private & Personal Use Only श. १५ : सू. २६-३२ निपात वृष्टि तथा पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि को देखा | गृहपति विजय के घर से मुझे प्रतिनिष्क्रमण करते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्ट हुआ। जहां मैं था, वहां आया, आकर मुझे दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदननमस्कार किया, वंदन- नमस्कार कर मुझे इस प्रकार बोला- भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं। २६. गौतम ! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं मौन रहा । दूसरा मासखमण पद ३०. गौतम! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालन्दा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर दूसरा मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा। ३१. गौतम! मैंने दूसरे मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह नगर था, वहां आया, आकर राजगृह नगर के उच्च नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए गृहपति आनन्द के घर में मैंने अनुप्रवेश किया। ३२. गृहपति आनन्द ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वरहृदय वाला हो गया। वह शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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