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श. १५ : सू. २७,२८
४. पांच दिव्यों का प्रकटीकरण
१. रत्नों की धारा निपात वृष्टि- 'वसुहारा वुट्ठा' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है- वसुधारा अर्थात् द्रव्यरूपा धारा की वृष्टि । '
वसु का एक अर्थ है-रत्न ।' तदनुसार वसुवृष्टि का अर्थ होगा- 'रत्नों की वृष्टि' । यह 'धारा-निपात' के रूप में होने से इसका तात्पर्य होगा। 'रत्नों की धारा निपात वृष्टि - यह प्रथम दिव्य है। तीर्थंकरों के गर्भ में आने से छह मास पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त उनके जन्म-स्थान में प्रतिदिन तीन वार कुबेर द्वारा साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती है। '
२. पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि- पुद्गल में पांच वर्ण पाए जाते हैं जिनके अंतर्गत सभी वर्ण समाहित हो जाते हैं। तीर्थकरों का एक अतिशय है- बहु वर्ण पुष्प वृष्टि। यह देवकृत अतिशय है-घुटने तक ऊंची पांच रंगवाले फूलों की वृष्टि | "
२७. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर- चउम्मुह - महापहपहेसु बहु अण्णमणस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेई - धन्ने णं देवापिया! विजये गाहावई, कयत्थे णं देवाप्पिया! विजये गाहावई, कयपुण्णे णं देवाणुष्पिया विजये गाहावई, कलक्खे णं देवाणुपिया विजये गाहा - बई, कया णं लोया देवाणुप्पिया! विजयस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं देवाणुपिया ! माणुस्सए जम्मजीवि - फले बिजयस्स गाहावइस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा - वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे, अहो दाणेत्ति घुट्ठे, तं धन्ने कत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए जीवियफले विजयस्स गाहावइस्स, विजयस्स गाहावइस्स |
जम्म
२८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्न - कोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासइ विजयस्स
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१. भ. वृ. १५ / २६ - वसुहारा वृट्ठ' त्ति वसुधारा द्रव्यरूपा वृष्टा ।
२. अभि. चि. ( नाममाला), ४ / १२६ ।
१३. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, खंड २, पृ. ३२१।
४. अभि. चि. ( नाममाला ), १ / ६३ ।
भगवई
३. ध्वजा फहराने लगी-चेलोत्क्षेप का एक अर्थ होता है-वस्त्रों की वर्षा । " ठाणं में भी 'चेलोत्क्षेप' का उल्लेख इस प्रकार आया है- 'चार कारणों से देव चेलोत्क्षेप करते हैं- १. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण - महोत्सव पर ।' तीर्थंकरों का एक अतिशय है - रत्नमय ध्वज । "
४. देवदुन्दुभियां बजी - यह भी तीर्थंकरों का एक अतिशय है । " ५. आकाश - अंतराल में 'अहोदानं' 'अहोदानं' की उद्घोषणासाधना काल में तपस्या के पारण में जब कोई तीर्थंकर को दान देता है, तब यह उद्घोषणा देवों द्वारा दान की महिमा को दर्शाने हेतु की जाती है।
ततः राजगृहे नगरे श्रृंगाटक - त्रिकचतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख - महापथ- पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयतिधन्यः देवानुप्रियाः ! विजयः 'गाहावई', कृतपुण्यः देवानुप्रियाः ! विजयः 'गाहा - वई', कृतार्थः देवानुप्रियाः! विजयः 'गाहावई', कृतलक्षणः देवानुप्रियाः ! विजयः 'गाहावई', कृताः लोकाः देवानुप्रियाः ! विजयस्य 'गाहावइस्स', लब्धं देवानुप्रियाः ! मानुष्यकं जन्मजीवितफलं विजयस्य गाहावइस्स' यस्य गृहे तथारूपः साधुः साधुरूपे प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथावसुधारा वृष्टा यावत् अहोदानम्, अहोदानम् इति घुष्टम, तत् धन्यः कृतार्थः, कृतपुण्यः, कृतलक्षणः, कृतालोकाः सुलब्धं मानुष्यकं जन्मजीवितफलं विजयस्य 'गाहावइस्स', विजयस्य 'गाहावइस्स' ।
ततः गोशालाः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य समुत्पन्नसंशयः समुत्पन्न - कुतूहल: यत्रैव विजयस्य 'गाहावइस्स' गृहं तत्रैव उपागच्छति, पश्यति
२७. राजगृह नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना एवं प्ररूपण करते हैं- देवानुप्रिय ! गृहपति विजय धन्य है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतार्थ है ! देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतपुण्य ( भाग्यशाली ) है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतलक्षण (लक्षण-संपन्न) है । देवानुप्रिय गृहपति विजय ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया, देवानुप्रिय ! गृहपति विजय ने • मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिस गृहपति विजय के घर में तथारूप साधु के साधु रूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपात वृष्टि यावत् आकाश के अंतराल में 'अहोदानम् - अहोदानम्' की उद्घोषणा । इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है, विजय गृहपति ने, विजय गृहपति ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है।
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२८. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। जहां गृहपति विजय का घर था, वहां आया, आकर गृहपति विजय के घर रत्नों की धारा
उपागम्य ५. नाया. १/१४ / ८४, पृ. २६१।
६. ठाणं, ४/४४७, पृ. ४१८ ।
७. अभि. चि. ( नाममाला) १/६१ | ८. वही, १/६२।
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