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________________ भगवई २५३ श. १५ : सू. २६ नहीं जैसी थी। उस समय दान समाज-व्यवस्था का एक प्रधान अंग निश्चय-दृष्टि का निर्णय व्यवहार-दृष्टि से भिन्न भी हो सकता था। उससे पूर्वकाल में जाते हैं तो दान जैसा कोई तत्त्व था ही नहीं। है। सम्भव है जिसे संयमी माना जाए, वह वास्तव में असंयमी हो और न कोई देने वाला था और न कोई लेनेवाला। भगवान् ऋषभनाथ ने जिसे असंयमी माना जाए, वह वास्तव में संयमी हो। यह व्यक्तिगत दीक्षा से पूर्व दान देना चाहा, पर कोई लेने वाला नहीं मिला। बात है। सिद्धान्त की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संयमी भगवान् ऋषभनाथ श्रमण बने। एक वर्ष तक उन्हें कोई भिक्षा को दान देना मोक्ष का मार्ग है और असंयमी को दान देना संसार देने वाला नहीं मिला, उसके पश्चात् श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस का का मार्ग है। संयमी और असंयमी की परिभाषा अपनी-अपनी हो दान दिया। सकती है। आचार्य भिक्षु की भाषा यह है कि जो पूर्ण अहिंसक हो साधुओं को दान देने का प्रवर्तन हुआ तब यह प्रश्न मोक्ष से वह संयमी है और जो मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित और जुड़ गया। धर्म का अंग बन गया। समाज में दीन-वर्ग की सृष्टि हुई अनुमति से अहिंसा का पालन न करे वह असंयमी है। तब दान करुणा से जुड़ गया। असंयमी मोक्ष-दान का अधिकारी नहीं है। जिसमें कुछ व्रत याचकों ने दान की गाथाएं गायीं। दान सर्वोपरि तत्त्व बन गया। हों, वह संयमासंयमी भी मोक्ष-दान का अधिकारी नहीं है। एक इससे अकर्मण्यता बढ़ने लगी, तब दान के लिए पात्र, अपात्र की आदमी छह काय के जीवों को मारकर दूसरों को खिलाता है, यह सीमाएं बनने लगीं। इससे दाताओं का गर्व बढ़ने लगा, तब दाता के हिंसा का मार्ग है। जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य बतलाते हैं, स्वरूप की मीमांसा की जाने लगी। वे सिंह की भांति निर्भय होकर नाद नहीं करते। उन्हें पूछने पर मेमने मांगने वालों का लोभ बढ़ गया, तब देय की मीमांसा होने की भांति कांपने लग जाते हैं। जो जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य लगी। दान के कारणों का विशद विवेचन हुआ। भारतीय साहित्य के बतलाते हैं, उनकी जीभ तलवार की तरह चलती है। हजारों-लाखों पृष्ठ इन मीमांसाओं से भरे हैं। आचार्य भिक्षु ने इस २. त्रिविध-त्रिकरण शुद्ध दान अध्याय में कुछ पृष्ठ और जोड़ दिए। उन्होंने दान का मोक्ष और इसका तात्पर्य है-कृत, कारित और अनुमोदित तथा मन, संसार की दृष्टि से विश्लेषण किया। उनका अभिमत है कि जो लोग वचन और काया की शुद्धि।' समूचे दान को धर्म मानते हैं, वे धर्म की शैली को नहीं जान पाए ३. देवायुष्य का बंध हैं। वे आक और गाय के दूध को एक मान रहे हैं।' मोक्ष का मार्ग देव-आयुष्य कर्म-बंध के मुख्य चार हेतु माने गए हैं - संयम है। असंयमी को दान दिया जाए और उसे मोक्ष का मार्ग बताया १. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बालतप ४. अकाम निर्जरा। जाए-यह विरोध है। दान को धर्म बताए बिना लोग नहीं देते, इसलिए प्रस्तुत सूत्र के अनुसार शुद्ध दान भी इसका एक हेतु है। सम्भव है दान को धर्म बताया जाता है। भगवती सूत्र में ही बताया गया है-गौतम! प्राणों का अतिपात आचार्य भिक्षु की समूची दान-मीमांसा का सार इन शब्दों में न कर, झूठ न बोल कर, तथारूप श्रमण अथवा माहन को वन्दनहै कि संयमी को दिया जाए, वह दान मोक्ष का मार्ग है और असंयमी नमस्कार कर यावत् उसकी पर्युपासना कर उसे किसी प्रकार के को दिया जाए, वह दान संसार का मार्ग है। संयमी को दान देने से मनोज्ञ एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित संसार घटता है और असंयमी को दान देने से संसार बढ़ता है। कर-इस प्रकार जीव शुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बंध करते हैं।१० दाता वही होता है जो संयमी या असयंमी सभी को दे। वह दिगम्बर-परम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव द्वारा सुपात्र को पग-पग पर संयमी-असंयमी की परख करने नहीं बैठता। अपने व्यवहार विधिपूर्वक दिया गया दान तथा समाधिपूर्वक मृत्यु अच्युतकल्प तक में जिसे संयमी मानता है, उसे मोक्ष-मार्ग की बुद्धि से देता है और में उत्पत्ति के हेतु हैं।" जिसे असंयमी मानता है, उसे संसार-मार्ग की बुद्धि से देता है। १. व्रताव्रत, २०१४ समुचे दान में धर्म कहे तो, नाइ जिण धर्म सेली रे। आक ने गाय रो दूध अग्यांनी, कर दीयो भेल संभेली रे॥ वही, २०१५ इविरत में दांन ले पेलां रो, मोष रो मार्ग बतावे रे। धर्म कह्यां विण लोक नहीं दे, जब कूर कपट चलावे रे॥ ३. वही, १६५७ सुपातर में दीयां संसार घटे छे, कुपातर ने दीयां वधे संसार। ए वीर वचन साचा कर जांणो, तिणमें संका नहीं छे लिगार रे॥ ४. वही, १६.५० पातर कुपातर हर कोइ ने देवे, तिणनें कहीजे दातार। तिणमें पातर दांन मुगत रो पावडीयो, कुपातर सूं रूले संसार रे॥ ५. व्रताव्रत, १७१६ कोइ छ काय जीवां रो गटको करावे, अथवा छ काय मारे ने खवावे। ओ जीव हिंसा नों राहज खोटो, तिण में एकंत धर्म में पुन बतावे॥ ६. वही, १७१२८ जीव खवायां में पुन परूपे, ते सीह तणी परे कदे न गूंजे। परगट कहितां भूडा दीसे, त्यांने प्रश्न पूछ्यां गाडर जिम धूजे।। ७. वही, १७।२६ जीव खवायां में पुन परूपे, त्यां दुष्ट्यां ने कहिजे निश्चे अनारज। त्यांरी जभिवहे तरवार सूं तीखी, त्यां विकलां रा किण विध सीझसी कारज।। ८. भ. वृ. १५/२६-'तिविहेणं' ति उक्तलक्षणेन त्रिविधेन। अथवा त्रिविधेन कृतकारितानुमतिभेदेन। तिकरणसुद्धेणं त्रिकरणशुद्धेण-मनोवाक्कायशुद्धेन। ६. ओव. सू. ३४। १०. भ. ७/२७ का भाष्य। ११. अमितगति श्रावकाचार, ११/१०२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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