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________________ श. १५ : सू. २६ एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्ठचित्तमाणंदिए दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्प - माणहियए विप्पामेव आसणाओ अन्भुट्ठेड़, अभुत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओममुयइ, ओमुत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करे, करेत्ता अंजलि -मउलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई अणु-गच्छइ, अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता ममं विउलेणं असण-पाणखाइम साइमेणं पडिला भेस्सामित्ति तुट्ठे, पडिला भेमाणे वि तुट्ठे, पडिलाभिते वि तुट्टे॥ २६. तए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेण दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिविणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणेदेवाउए निबद्धे संसारे परित्तीकए, गिहंसि ये से इमाई पंच दिव्वाई पाउब्भूयाई, तं जहा - बसु - धारा बुट्ठा, दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए, चेलुक्वेवे कए, आहयाओ देवदुंदुभीओ, अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो दाणेति घुट्टे ॥ सूत्र २२-२६ प्रस्तुत सूत्र में भावी तीर्थंकर (महावीर) को विजय गृहपति द्वारा प्रदत्त दान का प्रसंग आया है। इस सूत्र के संदर्भ में कुछ विषय विवेचनीय हैं ३. देवायुष्य का बंध ४. पांच दिव्यों का प्रकटीकरण २५२ पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पदहृदयः क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुञ्चति, अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं करोति, कृत्वा अञ्जलिमुकुलितहस्तः मां सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगम्य मां त्रिः आदक्षिणं- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वन्दे नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा मां विपुलेन अशन-पानखाद्य - स्वाद्येन प्रतिलाभयिष्यामि इति तुष्टः प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः प्रतिलाभितः अपि तुष्टः । १. द्रव्य, दाता और प्रतिग्राहक की शुद्धि २. त्रिविध - त्रिकरण शुद्ध दान १. द्रव्य, दाता और प्रतिग्राहक की शुद्धि दान की प्रक्रिया के तीन घटक हैं १. देय द्रव्य ततः तस्य विजयस्य गाहावइस्स तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन मयि प्रतिलाभते सति देवायुषक: निबद्धः, संसारः परीतीकृतः, गृहे च तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथावसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः निपातितः, चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः देवदुन्दुभयः अन्तरा अपि च आकाशे अहो दानम्, अहो दानम् इति घुष्टम् । भाष्य Jain Education International २. दाता ३. पात्र ( प्रतिग्राहक ) ये तीनों शुद्ध होने पर शुद्ध दान होता है। अभयदेवसूरि ने 'द्रव्य' की व्याख्या में बताया है - ओदन ( चावल ) आदि द्रव्य जब १. भ. वृ. १५ / २६ - 'दव्वसुद्धेणं' ति द्रव्यं-ओदनादिकं शुद्धं उद्गमादिदोषरहितं यत्र दाने तत्तथा तेन 'दायगसुद्धेणं' ति दायकः शुद्धो यत्राशंसादिदोषरहितत्वात् तत्तथा तेन । भगवई देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, सामने आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन - नमस्कार किया, वन्दन- नमस्कार कर- मैं महावीर को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करूंगा यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। २६. 'गृहपति विजय ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध इस प्रकार त्रिविध, त्रिकरण से शुद्ध दान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया। उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपातवृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के में 'अहोदानम् - अहोदानम्' की उद्घोषणा हुई। अन्तराल उद्गम आदि दोषों से रहित होता है, तब वह शुद्ध द्रव्य कहलाता तथा 'दायक शुद्धि' का अर्थ है- जो दाता आशंसा आदि दोषों से रहित होता है, वह शुद्ध दायक है।' शुद्ध प्रतिग्राहक अर्थात् सुपात्र । प्रस्तुत प्रसंग में भगवान् महावीर प्रतिग्राहक हैं। पंचमहाव्रतधारी निग्रंथ साधु को 'सुपात्र' की कोटि में रखा गया है।' आचार्य भिक्षु ने लौकिक और लोकोत्तर दान के स्वरूप पर सूक्ष्म विवेचन किया है जिसकी मीमांसा इस प्रकार है' : दान भारतीय साहित्य का सुपरिचित शब्द है। इसके पीछे अनुग्रह का मनोभाव रहा है। एक समर्थ व्यक्ति दूसरे असमर्थ व्यक्ति को दान देता है, इसका अर्थ है, वह उस पर अनुग्रह करता है। दान की परम्परा में असंख्य परिवर्तन हुए हैं। प्रत्येक परिवर्तन के पीछे एक विशिष्ट मान्यता रही है। प्राचीन काल में राजाओं की ओर से दानशालाएं चलती थीं । दुर्भिक्ष आदि में उनकी विशेष व्यवस्था की जाती थी । पदयात्रियों को भी आहार आदि का दान दिया जाता था। सार्वजनिक कार्यों के लिए दान देने की प्रथा सम्भवतः जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, खंड २, पृ. ४२१-४२७। २. ३. भिक्षु विचार दर्शन, पृ. ११६ - १२१। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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