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________________ २५६ भगवई श. १५ : सू. ३३-३५ पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, अनुगम्य मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां वंदित्ता नमंसित्ता ममं विउलाए करोति, कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, खज्जगविहीए पडिलभेस्सामित्ति तुट्टे, वन्दित्वा नमस्यित्वा मां विपुलेन पडिलाभेमाणे वि तट्टे, पडिलाभिते वि खाद्यकविधिना प्रतिलाभयिष्यामि इति तुढे॥ तुष्टः प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः प्रतिलाभितः अपि तुष्टः। बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदननमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर-मैं महावीर को विपुल खाद्यविधि से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोच कर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ३३. तए णं तस्स आणंदस्स गाहावइस्स ततः तस्य आनन्दस्य 'गाहावइस्स' ३३. उस गृहपति आनन्द ने द्रव्यशुद्ध, तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसद्धेणं पडिगाहग- तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहक- दाताशुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध, त्रिकरण सुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं शुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन से शुद्ध दान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, मयि प्रतिलाभिते सति देवायुष्क- देव-आयुष्य का निबंध किया, संसार को संसारे परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच निबद्धः, संसारः परीतीकृतः गृहे च परीत किया, उस समय उसके घर में ये पांच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा-वसुधारा वुट्ठा, तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि । दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए, प्रादुर्भूतानि, तद् यथा-वसुधारा वृष्टा, वृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा चेलुक्खेवे कए, आहयाओ देवदुंदुभीओ, दशार्धवर्णः कुसुमः निपातितः, फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः देव- अन्तराल में 'अहो दानम् अहो दानम्' की दाणेत्ति घुढे॥ दुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे उद्घोषणा हुई। 'अहो दानम् अहो दाना' इति घुष्टम् । ३४. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- ततः राजगृहे नगरे शृंगाटक-त्रिक- ३४. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, -चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह-पहेसु चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति, एवं राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-धन्ने णं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना एवं देवाणुप्पिया! आणंदे गाहावई, कयत्थे णं प्ररूपयति-धन्यः देवानुप्रियाः। आनन्दः । प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! गृहपति आनंद देवाणुप्पिया! आणंदे गाहावई, कयपुण्णे 'गाहावई', कृतार्थः देवानुप्रियाः! धन्य है। देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतार्थ णं देवाणुप्पिया! आणंदे गाहाबई, आनन्दः 'गाहावई', कृतपुण्यः है। देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतपुण्य है। कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! आणदे गा- देवानुप्रियाः! आनन्दः ‘गाहावई', देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतलक्षण है। हावई, कया णं लोया देवाणुण्यिा! कृतलक्षणः देवानुप्रियाः! आनन्दः देवानुप्रिय! गृहपति आनंद ने इहलोक और आणंदस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं 'गाहावई', कृताः लोकाः देवानुप्रियाः । परलोक दोनों को सुधार लिया, देवानुप्रिय! देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्म- आनन्दस्य 'गाहवइस्स', सुलब्धं ।। गृहपति आनंद ने मनुष्य जन्म और जीवन का जीवियफले आणंदस्स गाहावइस्स, जस्स देवानुप्रियाः! मानुष्यकं जन्मजीवित- अच्छी तरह से फल प्राप्त किया है, जिस णं गिहंसि तहारूवे साधु साधुरूवे फलम् आनन्दस्य 'गाहावइस्स' यस्य गृहपति आनन्द के घर में तथारूप साधु ने पडिलाभिए समाणे इमाइं पंच दिवाई गृहे तथारूपः साधुः साधुरूपे साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य पाउन्भूयाई, तं जहा वसुधारा बुट्टा जाव प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि । प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपातवृष्टि अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुटे, तं धन्ने प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-वसुधारा वृष्टा यावत् 'अहोदानम्-अहोदानम्' की कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं यावत् अहोदानम्, अहोदानम् इति उद्घोषणा, इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्म- घुष्टम्, तत् धन्यः कृतार्थः कृतपुण्यः कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और जीवियफले आणंदस्स गाहावइस्स, कृतलक्षणः, कृताः लोकाः, सुलब्धं परलोक दोनों को सुधारा है। गृहपति आनन्द आणंदस्स गाहावइस्स॥ मानुष्यकं जन्मजीवितफलम् आनन्दस्य ने, गृहपति आनन्द ने मनुष्य जन्म और 'गाहावइस्स', आनन्दस्य 'गाहावइस्स'। जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। ३५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहजणस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुष्पन्न-कोउहल्ले जेणेव ततः गोशालः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य ३५. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अन्तिकम् एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में समुत्पन्न-संशयः समुत्पन्नकुतूहलः संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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