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________________ भगवई २५७ श. १५ : सू. ३६-३६ आणंदस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव यत्रैव आनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासइ तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य पश्यति आणंदस्स गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं आनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहे वसुधारां वुटुं, दसद्धवण्णं कुसुमं निवडियं, ममं च वृष्टाम् दशार्धवर्णं कुसुमं निपतितम्, णं आणंदस्स गाहावइस्स गिहाओ। मां च आनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहात् पडिनिक्खममाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुढे प्रतिनिष्क्रान्तं पश्यति, दृष्ट्वा । जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, हृष्टतुष्ट: यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव उवागच्छित्ता ममं तिक्वृत्तो आयाहिण- उपागच्छति, उपागम्य मां त्रिः । पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वंदित्ता नमंसित्ता ममं एवं वयासी-तुब्भे वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा णं भंते! ममं धम्मायरिया, अहण्णं तुभं माम् एवमवादीत्-यूयं भदन्तः! मम धम्मतेवासी॥ धर्माचार्याः अहं तव धर्मान्तेवासी। गृहपति आनन्द का घर था, वहां आया, आकर गृहपति आनन्द के घर रत्नों की धारा निपात वृष्टि तथा पांच वर्णवाले फूलों की वृष्टि को देखा। गृहपति आनन्द के घर से प्रतिनिष्क्रमण करते हुए मुझे देखा, देखकर हृष्टतुष्ट हुआ, जहां मैं था, वहां आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर मुझे इस प्रकार बोला-भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं। ३६. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमद्वं नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्टामि॥ ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलि- पुत्रस्य एतमर्थं नो आद्रिये नो परिजानामि, तूष्णीकः सन्तिष्ठे। ३६. गौतम! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं • मौन रहा। तच्च-मासखमण-पदं तृतीय-मासक्षपण-पदम् ३७. तए णं अहं गोयमा! रायगिहाओ ततः अहं गौतम! राजगृहात् नगरात् नगराओ पडिनिक्खमामि, पडि- प्रतिनिष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा निक्वमित्ता नालंदं बाहिरियं मज्झं- बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, मज्झेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव निर्गत्य यत्रैव तन्तुवायशाला तत्रैव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उपागच्छामि, उपागम्य तृतीयं मासउवागच्छित्ता तचं मासखमणं क्षपणम् उपसम्पद्य विहरामि। उवसंपज्जित्ताणं विहरामि॥ तीसरा मासखमण-पद ३७. गौतम! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर तीसरा मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा। ३८. तए णं अहं गोयमा! तच्चमासखमण ततः अहं गौतम! तृतीय-मासक्षपण- पारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्ख- पारणके तन्तुवायशालायाः प्रति- मामि, पडिनिक्खमित्ता नालंद बाहिरियं निष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा मझमझेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवाग- निर्गत्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव च्छामि, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च- उपागच्छामि उपागम्य राजगृहे नगरे नीय-मज्झिमाई कुलाई घर-समुदाणस्स उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृह- भिक्खायरियाए अडमाणे सुणंदस्स गाह- समुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् विइस्स गिह अणुपवितु॥ सुनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहम् अनुप्रविष्टः। - ३८. गौतम! मैंने तीसरे मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह नगर था, वहां आया, आकर राजगृह नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए गृहपति सुनंद के घर में मैंने अनुप्रवेश किया। ३६. तए णं से सुणंदे गाहावई मम एज्ज- ततः सः सुनन्द: 'गाहावई' माम् माणं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्त- आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः माणदिए णदिए पीइमणे परम- आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पदहृदयः खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अन्भटेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमयइ, प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुञ्चति, ३६. गृहपति सुनंद ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह शीघ्र आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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