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________________ श. १५ : सू. ४०,४१ २५८ भगवई ओमइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं करेत्ता अंजलिमउलियहत्थे ममं करोति, कृत्वा अञ्जलिमुकुलितहस्तः सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता। मां सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगम्य ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता । कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमंसित्ता ममं विउलेणं सव्वकाम- नमस्यित्वा मां विपुलेन सर्वकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलाभेस्सामित्ति गुणितेन भोजनेन प्रतिलाभयिष्यामि तुढे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, पडिलाभिते इति तुष्टः, प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः, वि तुहे। प्रतिलाभितः अपि तुष्टः। उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, सामने आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर मैं महावीर को विपुल सर्वरसयुक्त भोजन से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ४०. तए णं तस्स सुणंदस्स गाहावइस्स तेणं ततः तस्य सुनन्दस्य 'गाहावइस्स' तेन ४०. उस गृहपति सुनंद ने द्रव्य शुद्ध,दाता शुद्ध, दवसुद्धेणं दायगसुद्धेण पडिगाहगसुद्धेणं द्रव्यशुद्धन, दायकशुद्धन, प्रतिग्राहक- प्रतिग्राहक शुद्ध-इस प्रकार त्रिविध, त्रिकरण तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए शुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन से शुद्धदान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, संसारे __ मयि प्रतिलाभिते सति देवायुष्क: निबद्धः, देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत परित्तीकए, गिहंसि ये से इमाई पंच संसारः परीतीकृतः, गृहे च तस्य किया, उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा–वसुधारा इमानि दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा- प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपातवृष्टि, बुट्ठा, दसवण्णे कुसुमे निवातिए, वसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने चेलुक्खेवे कए, आयाओ देवदुंदुभीओ, निपातितः, चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो देवदुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे ____ अंतराल में 'अहोदानम्-अहोदानम्' की दाणे त्ति घुटे॥ अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम्। उद्घोषणा हुई। ४१. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- ततः राजगृहे नगरे शृंगाटक-त्रिक- ४१. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, -चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु चतुष्क-चत्वर - चतुर्मुख - महापथ- चौराहो, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, बहुजणो अण्णमण्णस्स एमवमाइक्वइ पथेषु, बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-धन्ने एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयति- प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना, एवं गं देवाणुप्पिया! सुणंदे गाहावई, कयत्ये धन्यः देवानुप्रियाः! सुनन्दः 'गाहावई', प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद णं देवाणुप्पिया! सुणंदे गाहावई, कय- कृतार्थः देवानुप्रियाः! सुनन्दः ‘गाहा- धन्य है, देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद कृतार्थ है, पुण्णे णं देवाणुप्पिया! सुणंदे गाहावई, वई', कृतपुण्यः देवानुप्रियाः! सुनन्दः देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद कृतपुण्य है, कयलक्रवणे णं देवाणुप्पिया! सुणदे 'गाहावई', कृतलक्षण: देवानुप्रियाः! देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद कृतलक्षण है, गाहावई, कया णं लोया देवाणुप्पिया! सुनन्दः 'गाहावई', कृताः लोकाः देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद ने इहलोक और सुणंदस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं देवानुप्रियाः ! सुनन्दस्य 'गाहावइस्स', परलोक दोनों को सुधार लिया है, देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्म- ___ सुलब्धं देवानुप्रियाः! मानुष्यकं जन्म- देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद ने मनुष्य जन्म और जीवियफले सुणंदस्स गाहावइस्स, जस्स जीवितफलं सुनन्दस्य 'गाहावइस्स', जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे यस्य गृहे तथारूपः साधुः साधुरूपे । जिस गृहपति सुनंद के घर में तथारूप साधु पडिलाभिए समाणे इमाइं पंच दिव्वाइं प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि के साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच पाउब्भूयाई, तं जहा-वसुधारा बुट्ठा जाव प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-वसुधारा वृष्टा दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुटे, तं धन्ने यावद् अहोदानम् अहोदानम् इति निपातवृष्टि यावत् आकाश के अंतराल में कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं घुष्टम्, तत् धन्यः कृतार्थः कृतपुण्यः 'अहोदानम् अहोदानम्' की उद्घोषणा। लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीविय- कृतलक्षणः, कृताः लोकाः, सुलब्धं इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, फले सुणंदस्स गाहावइस्स, सुणंदस्स गा- ___ मानुष्यकं जन्मजीवितफलम् सुनन्दस्य कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक हावइस्स॥ 'गाहावइस्स', सुनन्दस्य 'गाहावइस्स'। दोनों को सुधारा है, गृहपति सुनंद ने, गृहपति सुनन्द ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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