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________________ भगवई १२६ श. १३ : उ. ४ : सू. ४६-४८ द्रष्टव्य यंत्रनरक रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा अधःसप्तमी बाहल्य १८०००० योजन १३२००० योजन १२८००० योजन १२०००० योजन ११८००० योजन ११६००० योजन १०८००० योजन निरयपरिसामंत-पदं निरयपरिसामन्त-पदम् नरक-परिसामन्त-पद ४६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां ४६. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी नरक के निरयपरिसामंतेसु जे पुढविक्काइया निरयपरिसामन्तेषु ये पृथिवीकायिकाः पार्श्वभागों में जो पृथ्वीकायिक यावत् जाव वणस्सइकाइया तेणं जीवा यावत् वनस्पतिकायिकाः ते जीवाः । वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा महाकर्मतराः चैव, महाक्रियातराः चैव, महाकर्मतर हैं? महाक्रियातर हैं? चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा महाश्रवतराः चैव, महावेदनातराः चैव? महाआश्रवतर हैं ? महावेदनतर हैं ? चेव? हंता गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए हन्त गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां हां गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी नरक के पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव निरयपरिसामन्तेषु तत् चैव यावत् पार्श्वभागों में जो पृथ्वीकायिक यावत् महावेदणतरा चेव। एवं जाव महावेदनातराः चैव। एवं यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे महाकर्मतर अहेसत्तमा॥ अधःसप्तमी। यावत् महावेदनतर हैं। इस प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र ४६ किया है, उसमें आउकाइया के पश्चात् तेउकाइया पाठ भी पुढविकाइया जाव वणस्सइ काइया-इस सूत्र में यावत् पद के उल्लिखित है। यहां विमर्श आवश्यक है। तैजसकायिक पद के द्वारा द्वारा आउकाइया, वाउकाइया-ये दो पद ग्रहणीय हैं। यदि सूक्ष्म तैजसकायिक जीवों का ग्रहण हो सकता है क्योंकि नरक में 'तेउकाइया' पाठ का ग्रहण करें तो 'सुहुम तेउकाइया'-इस पाठ का बादर तैजसकायिक का सद्भाव नहीं है। ग्रहण किया जा सकता है। वृत्तिकार ने जीवाभिगम का पाठ उद्धत लोगमज्झ-पदं लोकमध्य-पदम् लोकमध्य-पद ४७. कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे कुत्र भदन्त! लोकस्य आयाममध्यं ४७. भंते ! लोक का आयाम-मध्य कहां प्रज्ञप्त पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तम्? गोयमा! इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अवकाशान्तर ओवासंतरस्स असंखेज्जइभाग अवकाशान्तरस्य असंख्येयतमभागम् के असंख्येय भाग का अवगाहन करने पर, ओगाहेत्ता, एथ णं लोगस्स अवगाह्य, अत्र लोकस्य आयाममध्यं वहां लोक का आयाम-मध्य प्रज्ञप्त है। आयाममज्झे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम्। ४८. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा! चउत्थीए पंकप्पभाए ओवासंतरस्स सातिरेगं अद्धं ओगाहेत्ता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते॥ १. जीवा. ३/५ कुत्र भदन्त! अध:लोकस्य आयाममध्यं ४८. भंते ! अधोलोक का आयाम-मध्य कहां प्रज्ञप्तम्? प्रज्ञप्त है? गौतम! चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्याम् गौतम! चतुर्थ पंकप्रभा पृथ्वी के अवकाशान्तरस्य सातिरेकम् अर्द्धम् अवकाशान्तर के कुछ अधिक अर्द्धभाग का अवगाह्य, अत्र अधःलोकस्य अवगाहन करने पर, वहां अधोलोक का आयाममध्यं प्रज्ञप्तम्। आयाम-मध्य प्रज्ञप्त हैं। २. पृ. प. १३/४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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