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________________ १२८ श. १३ : उ. ४ : सू. ४४,४५ भगवई नेरइयाणं फासाणुभव-पदं नैरयिकाणां स्पर्शानुभव-पदम् नैरयिकों का स्पर्शानुभव-पद ४४. रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४४. भंते ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं पुढविफासं पञ्चणुन्भवमाणा कीदृशकं पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुभवन्तः प्रकार के पृथ्वीस्पर्श का प्रत्यनुभव करते हुए विहरंति ? विहरन्ति? विहरण करते हैं? गोयमा ! अणिढे जाव अमणामं। एवं गौतम! अनिष्टं यावत् 'अमणाम'। एवं गौतम! अनिष्ट यावत् अमनोहर। इसी जाव अहेसत्तमपुढविनेरइया। एवं यावत् अधःसप्तमीपृथिवीनैरयिकाः। एवं प्रकार यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों आउफासं, एवं जाव वणस्सइफासं॥ अप्-स्पर्श एवं यावत् वनस्पति- की वक्तव्यता। इसी प्रकार जल-स्पर्श, स्पर्शम्। इसी प्रकार यावत् वनस्पति का स्पर्शी भाष्य १. सूत्र ४४ दी गई है। इस विषय में प्रश्न उपस्थित होता है-नरक में बादर अनिष्ट आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई १/३५७ । तैजसकाय की सत्ता नहीं है इसलिए तैजसकायिक स्पर्श का ग्रहण अप्कायिक स्पर्श के बाद 'एवं जाव वणस्सइ फासं' सूत्र है। युक्ति संगत नहीं है। सूक्ष्म तैजसकाय की सत्ता है पर वह सामान्यतः इस सूत्र से तेउफासं और वाउफासं-तैजस स्पर्श और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय नहीं बनता। इस प्रश्न का समाधान वायुस्पर्श का ग्रहण किया जाता है। जीवाजीवाभिगम में इन दोनों अभयदेवसूरि ने बहुत युक्तिसंगत किया है-नरक में तैजसकायिक की का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।' अभयदेवसूरि ने लिखा है-यावत् पाठ के भांति ज्वलनधर्मा अग्नि है। उसका स्पर्श होता है। साक्षात् द्वारा तैजसकायिक स्पर्श सूत्र और वायुकायिक स्पर्श सूत्र की सूचना तैजसकायिक का स्पर्श असंभव है। नरकों का बाहल्य-क्षुद्रत्व पद ४५. भंते ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी की अपेक्षा विस्तार में सर्वथा महती है ? सब प्रान्त-भागों में सर्वथा छोटी है? नरयाणं बाहल्ल-खुडत्त-पदं नरकाणां बाहल्य-'खुडत्त'-पदम् ४५. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोचं इयं भदन्त! रत्नप्रभापृथिवी द्वितीयां सक्करप्पभं पुढविं पणिहाय शर्कराप्रभां पृथिवीं प्रणिधाय सर्वमहती सब्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया बाहल्येन, सर्व 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु? सव्वंतेसु ? हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा- हन्त गौतम! इयं रत्नप्रभापृथिवी पुढवी दोचं पुढविं पणिहाय जाव द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय यावत् सर्व सब्वखुड्डिया सव्वतेसु। 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु। हां गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी की अपेक्षा विस्तार में सर्वथा महती है, सर्व प्रान्त-भागों में सर्वथा छोटी भंते ! दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी की अपेक्षा विस्तार में सर्वथा महती है ? पृच्छा। दोचा णं भंते! पढवी तचं पढविं द्वितीया भदन्त! पृथिवी तृतीयां पृथिवीं पणिहाय सब्वमहंतिया बाहल्लेणं- प्रणिधाय सर्वमहती बाहल्येन-पृच्छा। पुच्छा। हंता गोयमा! दोचा णं पुढवी जाव हन्त गौतम! द्वितीया पृथिवी यावत् सब्वखुड्डिया सव्वंतेसु। एवं एएणं सर्व 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु। एवम् एतेन अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी __ अभिलापेन यावत् षष्ठिका पृथिवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय जाव अधःसप्तमीं पृथिवीं प्रणिधाय यावत् सर्व सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु॥ 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु। हां गौतम ! दूसरी पृथ्वी यावत् सर्व प्रान्त भागों में सर्वथा छोटी है। इस अभिलाप के द्वारा यावत् छठी पृथ्वी अधःसप्तमी पृथ्वी की अपेक्षा यावत् सर्व प्रान्त-भागों में सर्वथा छोटी है। भाष्य १. सूत्र ४५ सर्वान्तों-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में उसकी लंबाईरत्नप्रभा मोटाई में एक लाख अस्सी हजार योजन वाली है। चौड़ाई एक रज्जु प्रमाण है।' १. जीवा. ३/१२३। तेजरकायिकस्येव परमाधार्मिकविनिर्मित ज्वलनसदृशवस्तुनः स्पर्शः २. भ. वृ. सू. १३/४४-इह यावत्करणात्तैजसकायिकस्पर्शसूत्रं वायुकायिक- तेजस्कायिकस्पर्श इति व्याख्येयं न तु साक्षात् तेजस्कायिकस्यैव स्पर्शसूत्रं च सूचितं, तत्र च कश्चिदाह ननु सप्तस्वपि पृथिवीषु असंभवात्। तेजस्कायिकवर्ज पृथिवीकायिकादिस्पर्शों नारकाणां युक्तः तेषां ताषु ३. भ. वृ. सू. १३/४५-सर्वथा महती अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षप्रमाणविद्यमानत्वात् बादरतेजसां तु समयक्षेत्र एव सद्भावात् सूक्ष्मतेजसां त्यात् रत्नप्रभावाहल्यस्य शर्कराप्रभाबाहल्यस्य च द्वात्रिंशत्सहस्राधिकपुनस्तत्र सद्भावेपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति? अत्रोच्यते, इह च योजनलक्षमानत्वात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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