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________________ भगवई तेसु णं नरएसु नेरइया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, नो तहा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चैव, महासवतरा चैव, महावेदणतरा चेव, महिडियतरा चेव, महज्जुइयतरा चेव, नो तहा अपिडियतरा चेव, अप्पजुइयतरा चेव । छट्टीए णं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नरएहिंतो महत्तरा चेव, महावित्थिष्णतरा चेव, महोगासतरा चेव, महापरिक्कतरा चेव, नो तहा महष्पवेसणतरा चेव आइण्णतरा चेव आउलतरा चेव, अणोमाणतरा चेव । तेसु णं नरएसु नेरइया पंचमाए धूमष्पभाए पुढवीए नेर एहिंतो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, नो तहा अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, अपिडियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चेव, नो तहा महड्डियतरा चेव, महज्जुतियतरा चेव । पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिण्णि निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । एवं जहा छट्टीए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णंति जाव रयणप्पभंति जाव नो तहा महड्डियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चैव ॥ १. सूत्र ४३ शब्द विमर्श महत्तर - लंबाई में बड़ा । महावित्थिण्णतर-चौड़ाई में बड़ा । महोगासतरा- महान् अवकाशतर । महापरिक्कतरा – महान् एकांत वाला। Jain Education International १२७ तेषु नरकेषु नैरयिकाः अधः सप्तम्याः पृथिव्याः नैरयिकेभ्यः अल्पकर्मतराः चैव, अल्पक्रियातराः चैव, अल्पाश्रवतराः चैव, अल्पवेदनातराः चैव, नो तथा महाकर्मतराः चैव, महाक्रियातराः चैव, महाश्रवतराः चैव, महावेदनातराः चैव महर्धिकतराः चैव, महाद्युतिकतराः चैव, नो तथा अल्पर्धिकतराः चैव, अल्पद्युतिकतराः चैव । षष्ट्यां तमायां पृथिव्यां नरकाः पञ्चम्याः धूमप्रभायाः पृथिव्याः नरकेभ्यः महत्तराः चैव, महाविस्तीर्णतराः चैव, महावकाशतराः चैव, महाप्रतिरिक्ततराः चैव, नो तथा महाप्रवेशनतराः चैव, आकीर्णतराः चैव, आकुलतराः चैव, अनवमानतराः चैव । तेषु नरकेषु नैरयिकाः पञ्चम्याः धूमप्रभायाः पृथिव्याः नैरयिकेभ्यः महाकर्मतराः चैव महाक्रियातराः चैव महाश्रवतराः चैव, महावेदनातराः चैव, नो तथा अल्पकर्मतराः चैव अल्पक्रियातराः चैव, अल्पाश्रवतराः चैव, अल्पवेदनातराः चैव अल्पर्धिकतराः चैव, अल्पद्युतिकतराः चैव, नो तथा महर्धिकतराः चैव, महाद्युतिकतराः चैव । पञ्चम्याः धूमप्रभायाः पृथिव्याः त्रीणि निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एवं यथा षष्ठ्यां भणिताः एवं सप्त अपि पृथिव्यः परस्परं भण्यन्ते यावत् रत्नप्रभायाम् इति यावत् नो महर्धिकतराः चैव, अल्पद्युतिकतराः चैव । भाष्य श. १३ : उ. ४ : सू. ४३ उन नरकों के नैरयिक अधः सप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों से अल्पकर्मतर हैं, अल्पक्रियातर हैं, अल्पआश्रवतर हैं, अल्पवेदनतर हैं, वैसे महाकर्मतर नहीं हैं, महाक्रियातर नहीं हैं, महाआश्रवतर नहीं हैं, महावेदनतर नहीं हैं, महर्द्धिकतर हैं, महाद्युतिकतर हैं वैसे अल्पर्द्धिकतर नहीं हैं, अल्पद्युतिकतर नहीं हैं। छट्टी तमा पृथ्वी के नरक पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नरकों से महत्तर हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महाअवकाशतर हैं, महाप्रतिरिक्ततर हैं, वैसे महाप्रवेशनतर नहीं हैं, आकीर्णतर नहीं हैं, आकुलतार नहीं हैं, अनवमानतर नहीं हैं-अतिशय रूप से भरे हुए नहीं हैं। उन नरकों के नैरयिक पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से महाकर्मतर हैं, महाक्रियातर हैं, महाआश्रवतर हैं, महावेदनतर हैं, वैसे अल्पकर्मतर नहीं हैं, अल्पक्रियातर नहीं हैं, अल्पआश्रवतर नहीं हैं, अल्पवेदनतर नहीं हैं, अल्पर्द्धिकतर हैं, अल्पद्युतिकतर हैं, वैसे महर्द्धिकतर नहीं हैं, महाद्युतिकतर नहीं हैं। For Private & Personal Use Only पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के तीन लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। इस प्रकार जैसे छठी नरक की वक्तव्यता वैसे ही सात पृथ्वियां परस्पर वक्तव्य हैं यावत् रत्नप्रभा तक यावत् वैसे महर्द्धिकतर नहीं हैं, अल्प द्युतिकतर हैं। महापवेसणतरा-छठे नरक तमा में जितने जीवों का प्रवेश होता है, सातवी पृथ्वी में उससे असंख्य गुण हीन होता है, इस दृष्टि से 'नो महापवेसणतर' बतलाया गया है। महाप्रवेशतर नहीं है इसलिए वे नरकावास नरक जीवों से अत्यंत आकीर्ण नहीं हैं, आकुल नहीं हैं, अतिशय रूप से भरे हुए नहीं हैं। www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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